Wednesday, October 5, 2016

तुम्हारे मेरे बीच

तुम्हारे मेरे बीच
एक ख़्याल भर का 
स्वप्निल रिश्ता था  
जो सहलाता, दुलराता
जीने का प्रयोजन दिखाता  
'प्रयोजन' जो न था पहले जब 
जीवन तो तब भी था
तो अब क्यूँ है असहज 
सब कुछ 
तुम तब भी नहीं थे 
तुम अब भी नहीं हो 
तुम न होगे कभी

एक भ्रम जो
पलता रहा 
वर्षों से 
टूटा ऐसे, ज्यों 
शाख़ से जुड़ा पत्ता
उड़ता गया आँधी संग  
माला से बिंधा मोती
बिखरता रहा जमीं पर 
आकाश से बिछुड़ा तारा
विलुप्त हवाओं में

गहरे दुःख के साथ
क्षण भर देखा तो गया इन्हें
पर न आ सकी
इनके हिस्से
कभी कोई दुआ
न पीड़ा का हुआ बंटवारा
न मिला कोई भी जवाब 
बस अस्थियों की तरह
अंतिम समय में
चुन लिए गए
शोक-सभा में
नियमानुसार दोहराने को
वही चुनिंदा ख़्वाब
-प्रीति 'अज्ञात' 

Wednesday, September 28, 2016

हौसला बढ़ता गया

दोस्तों की दुश्मनी को माफ़ दिल से है किया
दिल पे जो गुजरी भुलाया हौसला बढ़ता गया
कौन किसका है यहाँ किसने गिराया आसमां 
भौंचक हुई आँखें मग़र फिर हौसला बढ़ता गया

हम थे अहमक़ मानके इक सीख ली आगे बढ़े 
याद की ग़लती जुबानी हौसला बढ़ता गया 
भीड़ के चेहरे में शामिल शख़्स हर गुमनाम है 
थाम के झंडा चले फिर हौसला बढ़ता गया

थी शिक़ायत रोज ही ज़ालिम जमाने से मगर 
ग़म को जब-जब भी तराशा हौसला बढ़ता गया
अपने काँधे गिरके रोये और जब हंसने लगे
मौत को दी पटखनी फिर हौसला बढ़ता गया
-प्रीति 'अज्ञात'

Monday, June 6, 2016

स्त्री

बचपन उनमें लूट रही हूँ
अपने सपने कूट रही हूँ 

कभी छुपी थी 
डर बैठी इक कोने में
कभी लिपट रोई संग
माँ के बिछौने में
गया समय ले साथ 
बीती बात सभी 
अब खुद से ही रूठ रही हूँ
अपने सपने.........
 
रिश्तों को अपनाया
जिया भरम ही था
आया हिस्से जो 
पिछला बुरा करम ही था 
है किससे क्या कहना
और किसकी ख़ातिर लड़ना
थोड़ा-थोड़ा टूट रही हूँ
अपने सपने......

वो जीवन भी क्या 
जो किश्तों में पाया
न समझी ये दुनिया 
है इसकी क्या माया
थी कोशिश पल भर
हंसकर जी लेने की 
भीतर ही खुद छूट रही हूँ
अपने सपने.......
- प्रीति 'अज्ञात'

Sunday, June 5, 2016

सेलिब्रिटी

वे समझते हैं
खुद को सेलिब्रिटी 
बड़े हो गए 
तो आप जरा अदब से मिलें 
करें दुआ- सलाम रोजाना 
देखें उनकी ओर 
कृपादृष्टि बरसने की उम्मीद लिए 

एक पल को तो लगेंगे ये
बेहद अहंकारी, कुंठित 
पर लेना जायजा कभी  
इनके आसपास की भीड़ का
पाओगे कुछ को
रोज मजमा लगाने वाले
मदारी की तरह 
और कुछ की हालत से 
पसीजेगा ह्रदय  
जब देखोगे इन्हें 
किसी और के आगे-पीछे 
हाथ बाँधे खड़े हुए 
 
बोरिंग पासिंग गेम की तरह
बड़े-छोटे समझने का यह भ्रम 
सृष्टि में सदियों से है जारी 
आगे भी रहेगा
भटकती सभ्यता और
आखिरी मानव की 
आखिरी साँसों के
बीत जाने तक

अब ये तुम पर है
कि ज़िंदगी की शतरंज में
स्वयं को कहाँ खड़ा 
करना चाहोगे 
बस डूबते सूरज को
ध्यान में रखना!
- प्रीति 'अज्ञात'

Thursday, May 26, 2016

बस्तियाँ

श्मशान के समीप से 
गुजरते हुए कभी  
सिहर जाता था तन
दृष्टिमान होते थे 
वृक्षों पर झूलते
मृत शरीर 
श्वेत वस्त्र धारण किये 
भटकती दिव्यात्मा 
उल्टे पैर चलती चुड़ैल
हू-हू करती आवाजें 
भयभीत मन
कंपकंपाते क़दम
भागते थे सरपट 
रौशनी की तलाश में 
लौट आता था चैन 
किसी अपने का चेहरा देख 

परिवर्तन का दौर 
या विकास की मार 
कि दुःख में छूटने लगा
अपनों का साथ
व्यस्तता की ईंट मार
सहज है निकल जाना 
आत्मसम्मान का बिगुल बजा
कुचल देना 
दूसरों के सम्मान को
'इन' है इन दिनों

'बदलाव अच्छा होता है'
हम्म, होता होगा
तभी तो निडर हो 
आसान है गुजरना
पुरानी, सुनसान राहों से 
पर न जाने क्यूँ 
अब बस्तियाँ 
भयभीत करने लगीं हैं मुझे
- प्रीति 'अज्ञात'

Monday, May 23, 2016

वक़्त हँसता रहा......

सितम पर सितम रोज ढाता रहा 
वक़्त हँसता रहा मुस्कुराता रहा 

तेज क़दमों से वो दौड़कर चल दिया 
काट उस डाल को, जिसने था फल दिया
घर ये हैरान है, सब परेशान हैं   
आखिर ज़ख्मों को क्यूँ नोच खाता रहा 
वक़्त हँसता रहा.............

अपनी मिट्टी को छोड़ा शहर के लिए 
चाँद निकला था बस इक पहर के लिए 
वो आसमां की उड़ानों में मशग़ूल था 
बूढ़ा बरगद कहीं बड़बड़ाता रहा 
वक़्त हँसता रहा. ......... 

जो मायूस ख़्वाहिश दबी थी कहीं 
सहमी अब दुबक के छुपी है यहीं 
जबसे जाना ए मौत,तेरे फरमान को 
दिल, सीने से निकला और जाता रहा 
वक़्त हँसता रहा मुस्कुराता रहा.......!
- प्रीति 'अज्ञात'

अजी, थोड़ा तो जी लीजिए!

किसमें, कितना दोष है
छोड़ ये हिसाब अब 
किसके काम आ सके 
बस इसपे गौर कीजिये 
अजी, थोड़ा तो......... 

ज़िन्दगी के प्याले में 
ग़म और ख़ुशी संग हैं 
चुस्कियों के साथ फिर 
दोनों का मजा लीजिए 
अजी, थोड़ा तो......... 

दिल का क्या, ये गैर है 
इसका न मलाल कर
जो टूटने का दर्द है
बिखरों को जोड़ा कीजिये  
अजी, थोड़ा तो......... 

जो ज़ख्म पे मरहम रखे  
उसकी आस छोड़कर
वक़्त के हिसाब से 
चेहरे को सजा लीजिए
अजी, थोड़ा तो.........
 
मेला कहो सर्कस इसे
ये खेल दौड़भाग का 
अंत, फिर शुरुआत है 
खैर.. जाने भी दीजिये  
अजी, थोड़ा तो जी लीजिए!
© 2016 प्रीति 'अज्ञात'. सर्वाधिकार सुरक्षित 

Tuesday, April 26, 2016

मौन

'मौन'...
अपनी ही आवाज़ के विरुद्ध
एक कमजोर आह्वान!
'आवाज़' जो सुनकर भी
तय न कर सकी
ध्वनि तरंगों के उस पार का
सहमा-सा रास्ता
कुछ शब्द, गले में 
अटके हुए अब भी
भावनाओं के झूले में
झूलते, उलझ रहे
अपनी ही बनाई
अदृश्य बेड़ियों के जाल में

कुछ स्मृतियाँ
सिसकियाँ बन बिखरती हुईं
अकेले में
पलकें दबाकर सोख रहीं
उनके भीतर की नमी
चल रही श्वांस
धड़कनों का हर सुर
गूँजता हुआ देता 
कर्कश ध्वनि
एक पसरा हुआ सन्नाटा
किसी मज़बूत पत्थर के
अहंकार तले दबी हँसी
ओढ़ लेती है
विवशता का आवरण

'मौन' कुछ नहीं
एक विश्वासघात है
अपने ही कायर मन से,
जो बोलता तो बहुत है
पर कहता नहीं
हाँ, ये न आध्यात्म है
और न पूजा
'मौन' ज़रूरी नहीं
इंसान की 'मजबूरी' है!
- प्रीति 'अज्ञात'

अकवि (अकविता)

वो लिख चुका था
अपनी पहली खिलखिलाती
खुशहाल कविता
फिर उसने लिखी
सामाजिक, राजनीतिक,
मुद्दों पर प्रहार करती
गम्भीर कविता
यकायक निकलने लगी
गुदगुदाती, हंसाती 
चटखारेदार, मस्ती वाली
बैठी ठाली, नाकारा,
निकम्मी कविता
.....हँसते रहे सब!  

बदला समय
बनी चमचमाती मुलाक़ाती
जुनूनी कविता 
चहकने लगी इश्क़ में 
बावली, फुदकती, इठलाती
मासूम कविता
घेरती रहीं यादें और 
बरसने लगी
कविताओं पर कविता
......उठे सवाल!

गिरे मुखौटे तो
निराश हो फूटी
दर्द में डूबी,चरमराती
उदास कविता
वो परोसता रहा वर्षों तक
ह्रदय की हर उलझन औ'
ज़ख्म की नुमाइश करती
बेबस, लाचार, हताश
रुदाली कविता
......लूटी वाहवाही!

थका, ठहरा इक दिन
फिर उसने लिखनी चाही  
अपनी आखिरी कविता
वो लिखता रहा
लिखे ही जा रहा 
लिख रहा अब भी
हारकर अपने-आप से 
..... आसपास चुप्पी पसरी है इन दिनों!
- प्रीति 'अज्ञात'

Saturday, April 23, 2016

थोड़ा-थोड़ा...

कविता, गीत, गद्य 
तितर-बितर अहसास 
बालपन से ही 
साथी पुराने 
थामा मेरा हाथ 
नहीं देते धोखा कभी 
चुन लेती हूँ शब्द 
नमक की तरह 
इच्छानुसार 
अपने विषय,
अपनी मर्ज़ी से 
समझते हैं ये सब
बख़ूबी मुझे!

फड़फड़ाता मन 
उठाता सवाल 
जन्मती इच्छायें 
उम्मीदों की ठिठोली 
हंसती कभी खुद पर 
तो कभी मायूस हो 
बेबस मौन ओढ़ लेती
सच और झूठ के
अंतर्द्वंद्व में घायल 
अनर्गल स्वप्न 
बड़बड़ाते हुए 
अपनी ही श्वासों की 
गलतफहमियाँ से 
टूट जाते हैं
हर सुबह बेआवाज

कुछ लफ्ज़ बिखरते
कोरे पन्नों पर
और यूँ ही 
कभी मरती तो कभी 
जी लेती हूँ इनमें 
थोड़ा-थोड़ा 
- प्रीति 'अज्ञात' 

Monday, April 4, 2016

कौवे

डूबती साँसों की निगरानी करते 
समझदारी के कौवे अब  
सबकी निगाहों से बचकर 
लीलने लगे हैं ज़िंदगी क़तरा-क़तरा  

वो जिम्मेदारियों को 
अपनी सलामती की जिम्मेदार ठहरा
निश्चिंत होना चाहती है  
कि इनके मजबूत हाथों ने ही 
गाड़े रखा होगा उसे जमीन में कहीं 

चंद तस्वीरों पर
ठहरी हुई निगाहें
खिसियानी बिल्ली-सी 
शुक्रगुज़ार होने लगती हैं 
उन ऋणों की भी 
जिनसे मुक्त होना बाकी है अभी 

नहीं बनना उसे महान 
मर्यादा के खोखले 
सुरक्षा-कवच की आड़ में
जो चीर देता है
भीतर-ही-भीतर

जिम्मेदारियाँ भी ख़ैर.. 
कोरी कायरता पर
आह भरते हुए 
चंद शब्दों की चाशनी का
लिजलिजा लेप ही तो हैं
 
न रहे भरम का चिह्न भी शेष 
तो आवश्यक है  
इसी जन्म में
हर ऋण से मुक्त हो जाना 

पुनर्जन्म, फिर मिलेंगे,
रिश्ता जनम-जनम का,
पक्का वादा, सच्चा प्रेम 
सब विषय हैं असल चरित्रों की
झूठी, भ्रामक कविताओं के
वास्तविकता के धरातल पर 
ये ठगी औेर
भावनात्मक खेल के सिवा
कुछ भी नहीं!

सब कुछ जानते-समझते हुए 
जीना होगा उसे फिर भी
जब तक हर बोझ
हल्का न हो जाए
या फिर ढोना भारी न लगे!
- प्रीति 'अज्ञात'

Wednesday, March 23, 2016

.....

मन में विश्वास होता है 
प्रेम गीता क़ुरान होता है

ज़िन्दगी बन जाती है हसीं 
कोई जब मेहरबान होता है

बदलते चेहरों से गिला कैसा 
ख़ुदा सबपे कहाँ मेहरबान होता है 

हुनर खिल उठता है और भी 
कोई अपना जो कदरदान होता है

दिल औ' ईमां की इज़्ज़त रही नहीं बाकी 
रिश्ता दो दिनों का मेहमान होता है 

घर बने सबका ये मुमकिन कहाँ 
कुछ के हिस्से फ़क़त मकान होता है
- प्रीति 'अज्ञात'

टुकड़ा-टुकड़ा तथ्य (अकविता)

बुरे को बुरा बोलने के ठीक पहले 
घूमता हुआ दिमाग
करता है एकालाप 
ओह, सब क्या सोचेंगे 
क्या कहेंगे
मेरी इमेज
'उफ्फ, उसका क्या?'

किसी दुर्घटनास्थल से गुजरते समय 
हमारी उपस्थिति को निरर्थक बताते हुए 
शरीर के साथ ही धीरे-धीरे  
सरक जाते हैं सवाल 
फिर वही प्रलाप  
मुझे क्या करना 
कहाँ है  इतना फ़ालतू समय
पुलिस का चक्कर 
बेकार के पचड़े
'क्या फ़र्क़ पड़ जायेगा?'

राजनीति, अधर्म, अन्याय के विरुद्ध 
बोलते समय होती है घबराहट
आईना बन समाज करता वार्तालाप 
कहीं कोई मार न दे 
मेरा घर-परिवार 
आह, उसका क्या होगा मेरे बाद?
स्वार्थी, भीरु मन दबोच देता है 
अपनी ही जुबान
बड़ी निर्दयता से
एक तसल्ली के साथ 
'मेरे करने से कौन-सा देश सुधर ही जायेगा'

लेकिन देखो न
कुछ न करने के बाद भी 
चौंकता है तुम्हारा ह्रदय
हर अंजानी आहट पर
कहीं कोई चोर तो नहीं 
सहमते तो होगे तुम भी कभी 
किसी की अस्मिता तार-तार होते देख
कहीं अगली बार कोई तुम्हारे किसी....
लगा लेते हो न गले 
अपने बच्चे को सीने से चिपका 
किसी और के जिगर के टुकड़े को 
सरे-राह तड़पते देख  
आग में झुलसते इंसां की छटपटाहट से 
सुलग उठता होगा, तुम्हारा भी तन
दंगे-फ़साद में खिड़कियाँ बंद कर 
याद तो तुमने भी खूब किया होगा
ईश्वर का हर रूप!

फिर इन भिंचती मुट्ठियों को जो खुलने नहीं देता 
सुलगता है भीतर कहीं पर उबलने नहीं देता 
बाँध रक्खा है जिसने तुम्हें सदियों से 
ढोते जा रहे 
ज़िंदा लाश-सी ज़िंदगी तुम्हारी
सच्चाई से मुंह फेरकर 
गर हर रोज मरने से बेहतर 
कुछ रोज का जीना लगे 
तो बस आज, अभी,
ठीक इसी वक़्त 
निकाल फेंको इस शब्द को 
अपने दिल, दिमाग और शब्दकोष से भी 
ये 'डर' जो मार रहा
रोज-रोज तुम्हें, मुझे 
इस समाज को!
खदेड़कर रख दो इसे 
इस समाज के ही बाहर 
और दे दो देशनिकाला
'डरने' दो इस 'डर' को
अपने ही एकांत से
हाँ, अब तुम जियो 
कुछ पल चैन से
लोग कहते हैं
मुई ये 'ज़िंदगी'
बड़ी खूबसूरत है! 
- प्रीति 'अज्ञात'

Monday, March 14, 2016

वो दुनिया

समय की खिड़कियों से
झांकते हुए 
अचंभित हो देखती हूँ 
स्वयं को 
उछलती-कूदती  
रटती पहाड़े 
दो एकम दोओओओ 
दो दूनी चाआआर 
और लगता है 
कितनी संगीतमय थी दुनिया

रंगबिरंगे फूलों से भरी
बगिया के बीच
उकड़ू बन बैठी 
चित्रकारी करती हुई 
रंग भरती, खिलखिलाती
कितनी रंगीन थी तब दुनिया 

सारे गुणा-भाग, जोड़-बाकी
नाचते थे उँगलियों पर 
रसायन के सम्मिश्रण में 
दोनों तत्वों की पहचान हो 
या डार्विन का विकासीय सिद्धांत
आसान था, सबको समझ पाना 
कितनी सीधी-सरल थी तब दुनिया 

मन के गलियारों में
ताजा अख़बार बन 
छन्न-सी गिरती है 
एक हँसी 
अरे, आ न यार 
चल, बहुत पढ़ ली 
अहा, कितनी आत्मीयता 
कैसी ऊर्जा समाहित थी 
इन शब्दों में
कितनी अपनी थी तब दुनिया

इन दिनों 
छल-कपट से भरे 
ईर्ष्यालु लोगों की भीड़ में
दिलों की तलहटी में बैठ
कहीं गुम हो गया है प्रेम
बीते सुंदर पलों की तरह  
गले मिलते ही सताता है 
छुरा घोंपने का भय
स्वार्थ और मौका-परस्ती के 
द्रव्य में घुलती हुई 
खो गई है वो दुनिया  
जिसे ढूंढते हुए खो जाएँगे
हम सब भी यहीं-कहीं 
बीत चुकी है, वो दुनिया
बदल गई अब दुनिया...! 

© 2015 प्रीति 'अज्ञात'. सर्वाधिकार सुरक्षित 

Monday, February 15, 2016

फरवरी - दो कविताएँ

1. 
बहुत खूबसूरत होते हैं ये सात दिन 
जिनका होना-न- होना यक़ीनन 
प्रेम की पुष्टि नहीं करता 
फिर भी अच्छा लगता है 
मिलना अपनों से प्रेम से
गुलाब की खुश्बुओं के बीच
उम्र-भर का वादा लिए 
बैठा युगल, टेडी को साथ वाली 
कुर्सी पर बिठाये 
थामे हाथों में हाथ
चॉकलेट के मीठे स्वाद के साथ 
दोनों झांकते आँखों की खिड़कियों से
उठते गले मिलते हुए
एक प्यारा-सा बोसा
एक इज़हार
एक वादा
वादे को निभाने का   
लो हो गया 
renewal प्यार का! :)
- प्रीति 'अज्ञात'
--------------------------------

2. 
वो जिन्होंने पाया ही नहीं 
इसे अपने लिए 
या ज़िन्दगी की तरह 
टुकड़ा-टुकड़ा भरी
किश्तें इसकी
दर्द के अतिरिक्त  
अधिभार के साथ 
वो इन दिनों मौन हो 
दरवाजे की कुण्डी चढ़ा 
सर को टिकाये 
भीतर ही बैठे रहे
पर था उन्हें भी 
किसी दस्तक़ का इंतज़ार!

जैसे खींच ली हो जुबां
हालात ने 
या कि वक़्त ने
दबोचते हुए 
कसकर बाँधा है गला 
कि शब्द रुंधे, नाराज-से,
छटपटाकर अंदर ही 
दम तोड़ देते हैं  
न जाने क्यूँ
कुछ दिलों पर 
बेहद भारी होते हैं
ये सात दिन   
और बोझ-सी
ठहर जाती है 
'फरवरी' :(
- प्रीति 'अज्ञात'

Wednesday, January 27, 2016

सफ़र

भीड़ भरे बाज़ार में
रोज़ ही टकराते हैं
कंधों से कंधे
कहाँ पलटकर देखता है कोई
किसी का चेहरा
बस, चले जा रहे हैं अकेले
मैं, तुम या हम सभी?

बस की बगल वाली सीट
या रेल का खचाखच भरा डिब्बा
निगाहें झाँक रहीं होती हैं
खिड़की से बाहर
मन डूबता-उतराता
एक अनिश्चित सोच में
कि कल्पनाओं की उड़ान की
हड़ताल ही नहीं होती
ठंडी आह भर हृदय
खोल लेता है, 
उल्टी किताब कोई
पर मैं जानती हूँ, तुम भी
और हम सभी
कि दूर शहर में कहीं
बसता है हमारा मन.....

उम्मीदें टटोलती हैं
उस जगह की तस्वीरें
रुक जाते हैं क़दम
इक नाम सुनते ही
धड़कनें पकड़ने को होती हैं
अपनी रफ़्तार
और यक़ायक़
उतर जाता है चेहरा
जबकि मैं जानती हूँ, तुम भी
और हम सभी
कि चलना अकेले ही होगा सबको....

'आस' अब एक रूपांतरित टीस है
बावरा मन रोज़ ही हंसता है
अपने-आप पर
और चुपके-से गिरा देता है
कुछ खारे मोती
लेकिन मैं जानती हूँ, तुम भी
और हम सभी
कि दर्द का सफ़र, तन्हा ही तय
करना होता है........

खुशी के सुंदर चौराहे पर
कुछ पलों का सुस्ताना
फिर जानी-पहचानी क़सक लिए
मज़बूर हो निकल जाना
अब करना होगा ज़तन
कि ये रास्ते खुलेंगे
आगे जाकर
जहाँ से निकल रहे होंगे
कुछ और रास्ते
और ये पुराने 
गुम हो जाएँगे
नई राहों की भीड़ में
हाँ, मैं जानती हूँ, तुम भी
और हम सभी
कि रास्तों के मुसाफ़िर
उम्र-भर साथ नहीं देते.....

करते रहना होगा इंतज़ार
सड़क किनारे बनी
उसी पत्थर की पुलिया पर 
बैठे-बैठे, पथराएँगी आँखें
हो जाओगे बुत एक दिन
बरसों बाद गर गुजरा 
उधर से कोई
पूछेगा ज़रूर, कौतुहल में
'जाना कहाँ हैं?'
तुम हैरां हो उसे देखोगे
अपने बाल नोचते हुए
और चल दोगे, दिशाहीन
शायद पत्थर भी उछालो
आसमाँ में कोई
क्योंकि मैं जानती हूँ, तुम भी
और हम सभी
कि वक़्त के साथ
'इंतज़ार' ढलता नहीं
बल्कि घुल जाता है
'रूह' के ज़र्रे-ज़र्रे में
सदियों की तपिश से भी 
फिर ये पिघलता नहीं....!
-प्रीति 'अज्ञात'

Tuesday, January 5, 2016

DIFF 2015

अबके कुछ तो ख़ास हुआ है
जीने का एहसास हुआ है

चोरों ने फिर बदली वर्दी
देश में फिर बदलाव हुआ है

ख़ूब बंटी है रात में दारू
क्या कोई चुनाव हुआ है

सूख गया बारिश में नहाकर
खेत कोई बर्बाद हुआ है

चाल इश्क़ में चले सियासी
कौन यहाँ आबाद हुआ है

सोख रहा है लहू तिरंगा
सरहद पर संवाद हुआ है
- प्रीति 'अज्ञात'

चौथे दिल्ली अंतर्राष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल (DIFF 2015) के लिए मेरी यह रचना चयनित हुई थी.
इस फेस्टिवल में फिल्म के साथ-साथ कला और साहित्य को भी प्रोत्साहित किया जाता है. यह कार्यक्रम 5-10 दिसंबर 2015 के बीच दिल्ली में संपन्न हुआ. वहाँ तो जाना न हो पाया, पर उनकी पुस्तक की तस्वीर साझा कर रही हूँ.

Monday, January 4, 2016

वसीयत

मेरी 'ज़िंदगी' की वसीयत में
तुम्हें देने को कुछ भी नहीं
है एक कुचला, मासूम बचपन
खोई हुई अल्हड़ता
चन्द दबी हुई शैतानियाँ
कुछ यतीम इच्छाएँ
मौन हुए अल्फ़ाज़
सूखे हुए आँसू
और संदूकची में बंद,
निहायत ही, बेफ़िज़ूल, बेशर्म-से 
मुँह चिढ़ाते हुए ख़्वाब!

क्यूँ न बदल दें, इस बार
अंतिम समय की रस्मों को
न दूं, मैं तुम्हें कुछ भी
बस सौंप दूं, आम औरत की
'ज़िंदगी' की आम किताब
पढ़ना आकर्षक मुखपृष्ठ की
आड़ में छुपे हर कराहते पन्ने को
दर्द में भीगे शब्द, नगमों में डूबे
ज़ख़्मों की गिनती बेहिसाब!

ऐ, दुनिया! हो सके तो पनपने देना
अपने आँगन की 
हर कोमल कली
कि खिलखिला सके कभी
वो भी बन के गुलाब
करे अठखेलियाँ, लाए बहार
रहे मुखरित, झूमे, गुनगुनाए
उड़े पवन की तरह
उन्मुक्त पंछी बन 
न करना तुम कोई सवाल-जवाब!

वो आँसू और ख्वाब नादां ही रहे
न सीखे जो कभी जीने का हुनर
न करेंगे शिक़वा , अब जाते-जाते
बस उड़ा देना इन्हें, इक धानी चुनर
फिर हो जाएगा सब गुम
चुपचाप ही इस देह के साथ
मुलाक़ात का अब कोई 
और वक़्त मुक़र्रर कर दो
जो देना चाहो सुकूँ
रूह को मेरी, तो
आज किसी बच्चे का
बचपन 'ज़िंदा' कर दो!
- प्रीति 'अज्ञात'

छटपटाहट

श्वासों का आवागमन
झील भरे ये दो नयन
सन्नाटों से भौंचक हो
आह्वानित नव-आंदोलन

मस्तिष्क-पटल करे गर्जन
मेघों-सा भीषण ये क्रंदन
हृदय-विदारक पीड़ा से
छलनी हुआ, जो था सघन

पर-वेदन से व्यथित हुआ
क्यूँ इतना संवेदित हुआ
प्रश्नों के चौराहे पर
किसका था ये आगमन ?

गहराई में आहट-सी
बस अंतिम छटपटाहट ही
प्राण-पखेरू उड़ने को
चीत्कारें भरता मेरा मन !
- प्रीति 'अज्ञात'