Tuesday, December 29, 2015

कितने जीवन??

कितने जीवन तुमको मिले हैं
इक अपने जीने के लिए?

तुम जल रहे या जला रहे  
अपनों को जिस बात पे 
ख़ुद को ही तो छल रहे न 
ज़ख्म सीने के लिए 

मौत भी है ज़िंदगी-सी 
ख़ुद-ब-ख़ुद आ जाएगी 
इस वक़्त को दुआएं दे 
दो घूँट पीने के लिए 

ग़म की कमी खलती नहीं 
इक याद बस मिलती नहीं 
नम मोतियों की माला बिंधती 
दिल के नगीने के लिए

कोई दर्द समझे कब हुआ है 
रिश्ते उड़ता-सा धुंआ है 
बादलों में ढूंढ लो पल 
अंतिम महीने के लिए 

कितने जीवन तुमको मिले हैं
इक अपने जीने के लिए?
- प्रीति 'अज्ञात'

Sunday, December 20, 2015

आश्चर्य में हो तुम?

मूर्खता की पराकाष्ठा
या विशुद्ध भ्रम 
कि आँखों पर बंधी पट्टी देख 
कोस रहे हो व्यवस्था को  
ये अद्भुत 'व्यवस्था' अंधी नहीं 
बल्कि एक क्रूर- सुनियोजित 
षणयंत्र है उस अंतर्दृष्टि का 
जो महलों में निर्भीक विचरते 
संपोलों के भविष्य की सुरक्षा को
मद्देनज़र रख 
सदियों से रही आशंकित 
वही संपोले जिनके जन्मदाता ने 
दे रखा उन्हें आश्वासन 
उनके हर जघन्य कृत्य को 
बचपने की पोटली में  
लपेट देने का

'वो'  हैं आज भी उतने ही 
निडर, बेलगाम, सुरक्षित
हमेशा की तरह 
शोषण करने को मुक्त 
बालिग़ और नाबालिग़ 
हास्यास्पद शब्द भर रह गए 
जिनका एकमात्र प्रयोग
वोट डालने औ' घड़ियाली आँसू बहाने की 
सुविधा के अतिरिक्त 
और कुछ भी नहीं 
वरना हर वयस्क अपराधी 
क़ैद दिखता सलाख़ों के पीछे 

दरअसल 'देव-तुल्य' हैं
कुछ मुखौटेधारी  
और विवश जनता को देना होता है 
अपनी आस्था और आस्तिकता का प्रमाण
कि सुरक्षित बने रहने की उम्मीद में
अब भी यहाँ 
'नाग-देवता' की पूजा होती है!
 © 2015 प्रीति 'अज्ञात'. सर्वाधिकार सुरक्षित 
Pic: Google

Tuesday, December 8, 2015

निरर्थक है...!

निरर्थक है प्रमाणित सत्य को 
अस्वीकारते हुए  
करवट बदल सो जाना 
निरर्थक है भावों को 
शब्दों की माला पहनाते
आशंकित मन का 
मध्य मार्ग ही
उनका गला  घोंट देना 
निरर्थक है बार-बार धिक्कारे हुए 
इंसान का 
उसी चौखट पर मिन्नतें करना 
निरर्थक है फेरी हुई आँखों से 
स्नेह की उम्मीद 
निरर्थक है बीच राह पलटकर 
प्रारम्भ को फिर पा जाना
हाँ, सचमुच निरर्थक ही है
ह्रदय का मस्तिष्क से 
अनजान बन जाने का हर आग्रह

ग़र समेटनी हों 
हर बिखरती स्मृति 
टूटते स्वप्नों के साथ 
विदा ही प्रत्युत्तर हो 
हर मोड़ पर खड़े चेहरों  का
और समझौता ही बनता रहे 
गतिमान जीवन का एकमात्र पर्याय
तो फिर सार्थक क्या?
ये जीवन भी तो 
जिया यूँ ही …
निरर्थक! 
- प्रीति 'अज्ञात'
Pic. Credit: Google

Sunday, December 6, 2015

"यादों के लेटर-बॉक्स में भीतर से कुण्डी नहीं होती.....!"

जो क़िताबें कह नहीं पातीं 
वो पाठ अनुभव सिखाता है 
जीवन की भूलभुलैया में 
कोई बैकग्राउंड स्कोर-सा
बजता  है पुराना संगीत
ज़िंदगी के पहाड़े अब 
उलटे ही चला करते हैं
रंगहीन दुनिया में मुश्किल है 
जीवन का गणित समझ पाना
मुश्किल है पहचान अपनों की 
कि हर परिस्थिति में
बदले जाते हैं नियम 

चरमराहट की
खीजती आवाज के साथ 
खुलते हैं दिलों के
सुस्त दरवाजे
चेहरे पर 
बोझ की तरह 
लटकी हंसी
करती विवश अभिवादन 
पर चुगलखोर आँखों से 
झांक ही जाती असलियत 
कि इंतज़ार यहाँ 
था ही नहीं कभी 
सूना मन-आँगन
स्वीकारता नियति 
पर दुःख ज़िद्दी बच्चे-सा 
चला ही आता है
यादों की ऊंची मेड़ को 
फलाँगते हुए  

है विडंबना कैसी 
कि सब कुछ 
जानते-समझते हुए भी 
इंसान, उम्र-भर पलटता है
वही भीगे पन्ने
जिनकी एक्सपायरी डेट बीते 
बरसों बीत गए   
फिर भी न जाने क्यों 
यादों के लेटर-बॉक्स में 
भीतर से कुण्डी नहीं होती...... 
© 2015 प्रीति 'अज्ञात'. सर्वाधिकार सुरक्षित