आओ, काटो, रेत दो
उम्मीदों का गला
कि इंसान न बन सके तुम
तोडना चाहते हो
इरादों को ?
खरीदोगे, जज़्बातों को ?
जाओ, जाकर सीख लो
पहले इंसानियत
तो समझ सकोगे
संवेदनाओं को
और शायद फिर
हर शब्द का अर्थ
पर यक़ीं हो चला
तुम जैसों का
इस दुनिया में
होना ही व्यर्थ !
मत भूलना कि
शब्दकोष की थाह नहीं होती
अधर्म, अन्याय की कोई
मंज़िल, कोई राह नहीं होती
पर ग़र तय हैं तुम्हारी राहें
तो कान खोलकर सुन लो
कि कोई न ख़त्म कर सका
शब्दों की भाषा
ये तो है वटवृक्ष
जो नित ही जन्म देगा
अनगिनत शाखाओं को
तुम्हारा हर प्रहार
उतनी ही गति से
पैदा करता जायेगा
रोज दो नए अविजित,
जगेन्द्र, अक्षय, कलबुर्गी
और फिर चार
चार से सोलह
बत्तीस, चौंसठ
बढ़ता रहेगा आंकड़ा
हार जाओगे तुम
वार करते-करते
और एक दिन
ग़श खाकर
इसी वृक्ष की छाँह में
सुस्ताना पसंद करोगे !
यक़ीन मानो, तब तुम्हें भी अपने घृणित कृत्यों पर भीषण पीड़ा होगी और शायद अफ़सोस भी !
© 2015 प्रीति 'अज्ञात'. सर्वाधिकार सुरक्षित
..............................................................................................
बस, नाम ही तो अलग है और क़ातिलों के चेहरे भी ! पर सच्चाई को ख़त्म करने की 'मौत के सौदागरों' की मंशा नहीं बदली !
इधर दु:ख का वही पुराना, घिसा-पिटा राग...... कि ये भी एक आम आदमी के जीवन की 'सामान्य घटना' बनकर रह जाने वाली है! हम भी लिखते-लिखते थक ही जाएंगे, कभी-न-कभी !
उम्मीदों का गला
कि इंसान न बन सके तुम
तोडना चाहते हो
इरादों को ?
खरीदोगे, जज़्बातों को ?
जाओ, जाकर सीख लो
पहले इंसानियत
तो समझ सकोगे
संवेदनाओं को
और शायद फिर
हर शब्द का अर्थ
पर यक़ीं हो चला
तुम जैसों का
इस दुनिया में
होना ही व्यर्थ !
मत भूलना कि
शब्दकोष की थाह नहीं होती
अधर्म, अन्याय की कोई
मंज़िल, कोई राह नहीं होती
पर ग़र तय हैं तुम्हारी राहें
तो कान खोलकर सुन लो
कि कोई न ख़त्म कर सका
शब्दों की भाषा
ये तो है वटवृक्ष
जो नित ही जन्म देगा
अनगिनत शाखाओं को
तुम्हारा हर प्रहार
उतनी ही गति से
पैदा करता जायेगा
रोज दो नए अविजित,
जगेन्द्र, अक्षय, कलबुर्गी
और फिर चार
चार से सोलह
बत्तीस, चौंसठ
बढ़ता रहेगा आंकड़ा
हार जाओगे तुम
वार करते-करते
और एक दिन
ग़श खाकर
इसी वृक्ष की छाँह में
सुस्ताना पसंद करोगे !
यक़ीन मानो, तब तुम्हें भी अपने घृणित कृत्यों पर भीषण पीड़ा होगी और शायद अफ़सोस भी !
© 2015 प्रीति 'अज्ञात'. सर्वाधिकार सुरक्षित
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बस, नाम ही तो अलग है और क़ातिलों के चेहरे भी ! पर सच्चाई को ख़त्म करने की 'मौत के सौदागरों' की मंशा नहीं बदली !
इधर दु:ख का वही पुराना, घिसा-पिटा राग...... कि ये भी एक आम आदमी के जीवन की 'सामान्य घटना' बनकर रह जाने वाली है! हम भी लिखते-लिखते थक ही जाएंगे, कभी-न-कभी !
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