Wednesday, September 16, 2015

मेरी दुनिया

देखते हुए तस्वीरें 
चेहरे की मांस-पेशियां 
करतीं हंसने की
नाक़ाम चेष्टा 
पलटतीं, कसमसातीं 
भीतर सिहराता दर्द 
तलाशता शून्य में 
खोया हुआ कुछ 
और एक आवाज़ सुनते ही 
सब शिथिल, 
विलुप्त, गड्डम-गड्ड 
गोया स्मृतियों को भी 
एकांत की गुज़ारिश 
तभी तो झुंझला गईं 
यूँ अकस्मात् 
सिमट जाने से

आकाश में जगमगाता 
एक ध्रुवतारा 
या जमीं की ओर 
बढ़ता कोई सितारा 
कभी अपना नहीं होता 
सब भ्रम है, झूठी तसल्लियाँ 
चाँद को देखने से भी कहीं 
दूरियाँ मिटती हैं भला 
हाँ, सुखद है 
ये काल्पनिक उपस्थिति

ग़र मृत्यु-आलिंगन 
सुनिश्चित करता 
क्षण भर का भी दृष्टिभ्रम 
तो जीवित रहना 
निरुद्देश्य था 
पर रहना है 
रहना ही होगा 
उसने कहा था 
'मेरे जाने के बाद ही 
समझ सकोगी दुनिया को'
मैं चुप थी
शब्दों की भावभंगिमा ने 
अनकहा भी कह डाला
समझ गई, ये सूचना भर है 
'जाना' तय हो चुका!

भावों को मोतियों में पिरोकर 
रोकती रही टूटकर बिखरने से
सर झुकाये
समेटती रही 
अपनी ही यादों का कफ़न 
और कितनी दफा कहती 
"मेरी दुनिया तुम हो 
उसके पश्चात् समझने को 
अब शेष रहा भी क्या "
- © 2015 प्रीति 'अज्ञात'. सर्वाधिकार सुरक्षित
Pic : Clicked by me

Monday, September 7, 2015

तुम, पूछना अवश्य !


ओह, मासूम बच्चे 
ये उम्र नहीं थी तुम्हारी
इस तरह जाने की
अभी बस कल ही तो तुमने 
माँ कहकर उसे गले लगाया होगा 
और पापा की उंगली थामे 
निकले होगे कभी शाम को 
देखते होगे टुकुर-टुकुर आँखों से 
पंछी, पौधे, नीला आकाश 
सब कुछ आश्चर्यचकित होकर  
कितने प्रश्न कौंधें होंगे 
ह्रदय में तुम्हारे 
जिनका उत्तर तुम्हें 
मिलना ही चाहिए था !

तुम्हें सीखनी थी गिनतियाँ 
कंठस्थ करनी थी 
कितनी ही बाल कवितायेँ 
खींचनी थी, आड़ी-टेढ़ी लकीरें 
पन्नों और दीवारों पर 
भरने थे उसमें 
अपनी कल्पनाओं के तमाम रंग
छुपना था कहीं किसी परदे के पीछे 
और "मैं यहाँ हूँ' कहकर 
इठलाते बाहर आना था 
तुम्हें अपनी तोतली जुबाँ से करनी थी तमाम ज़िद 
और इस सुनहरी हंसी से जीत लेनी थी दुनिया!

लेकिन मेरे आयलान 
ये दुनिया हंसती कहाँ है आजकल ?
और न ही हंसने देती है किसी को 
तभी तो छीन ली तुमसे 
तुम्हारी खिलखिलाहट 
और किनारे ला छोड़ा तुम्हें
निपट अकेला 
उसी रेत पर 
जहाँ टीले बनाने की उम्र थी तुम्हारी!

तुम इस दुनिया में 
कक्षा का पहला पाठ भी न 
पढ़ सके 
और देख ली, तुमने 'दुनियादारी'
काश, अब हम सब भी 
न मुंह फेरें 
रेत पर औंधे मुंह सोती हुई सच्चाई से 
पुरानी कहावत हुई 
कि "दर्द को महसूस किया जा सकता है 
वो दिखता नहीं"
इधर तुम्हारी तस्वीर 
कलेजा चीरकर रख देती है!

ओ मेरे, नन्हे दोस्त
अलविदा तुम्हें ! 
लेकिन पूछना अवश्य 
उस ईश्वर से 
जो लहरें बन तुम्हें,
इंसानियत की लाश ठेलता 
तट तक बहा तो लाया 
पर जीवित क्यूँ न रख सका ?
उसकी न्याय की पुस्तक में 
हर निर्णय, देरी से ही क्यों आता है ?
कैसे बर्दाश्त होती है उसे 
किसी निर्दोष की निर्मम मौत ?
क्यों बचा लेता है वो आततायियों को,
गुनाह के बाद भी 
इक और गुनाह करने के लिए !!
आख़िर, दूसरे के पापों की सजा 
बेबस, मासूम लोग ही क्यों भुगतते हैं ??
- प्रीति 'अज्ञात'

एक तस्वीर Aylan Kurdi की, Twitter से साभार !

Thursday, September 3, 2015

शायद, कभी...!

आओ, काटो, रेत दो 
उम्मीदों का गला 
कि इंसान न बन सके तुम 
तोडना चाहते हो 
इरादों को ?
खरीदोगे, जज़्बातों को ?
जाओ, जाकर सीख लो 
पहले इंसानियत 
तो समझ सकोगे 
संवेदनाओं को 
और शायद फिर 
हर शब्द का अर्थ 
पर यक़ीं हो चला 
तुम जैसों का
इस दुनिया में 
होना ही व्यर्थ !

मत भूलना कि 
शब्दकोष की थाह नहीं होती 
अधर्म, अन्याय की कोई 
मंज़िल, कोई राह नहीं होती 
पर ग़र तय हैं तुम्हारी राहें 
तो कान खोलकर सुन लो 
कि कोई न ख़त्म कर सका 
शब्दों की भाषा 
ये तो है वटवृक्ष  
जो नित ही जन्म देगा   
अनगिनत शाखाओं को 
तुम्हारा हर प्रहार
उतनी ही गति से 
पैदा करता जायेगा 
रोज दो नए अविजित,
जगेन्द्र, अक्षय, कलबुर्गी 
और फिर चार 
चार से सोलह 
बत्तीस, चौंसठ 
बढ़ता रहेगा आंकड़ा 
हार जाओगे तुम 
वार करते-करते 
और एक दिन
ग़श खाकर 
इसी वृक्ष की छाँह में 
सुस्ताना पसंद करोगे !

यक़ीन मानो, तब तुम्हें भी अपने घृणित कृत्यों पर भीषण पीड़ा होगी और शायद अफ़सोस भी !

© 2015 प्रीति 'अज्ञात'. सर्वाधिकार सुरक्षित 
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बस, नाम ही तो अलग है और क़ातिलों के चेहरे भी ! पर सच्चाई को ख़त्म करने की 'मौत के सौदागरों' की मंशा नहीं बदली !
इधर दु:ख का वही पुराना, घिसा-पिटा राग...... कि ये भी एक आम आदमी के जीवन की 'सामान्य घटना' बनकर रह जाने वाली है! हम भी लिखते-लिखते थक ही जाएंगे, कभी-न-कभी !