ये न कविता है, न कहानी है
वही मासूम ज़िंदगानी है
तुम हँसे थे देख, जिनको कभी
उन्हीं आँखों से गिरा पानी है.
तमाम उम्र जिसका इंतज़ार रहा
वो मिले भी तो, कभी कुछ न कहा
बदलते दौर संग बदलते रहे
रिश्ते हैं या मौसम की ये रवानी है.
वक़्त के दरिया संग बहते रहो
न करो उफ़ भी, ज़ख़्म सहते रहो
कल यहाँ थी, अब दिखेगी कहीं
ये मोहब्बत भी आनी-जानी है.
न गमगीन हो बैठो यूँ अभी
तुम्हारी मौत खुद आएगी कभी
न मानें हार जो हिम्मतवाले
इक कोशिश की फिर से ठानी है.
मतलबी दुनिया में ढूँढे किसको
न चली दिल की भी मनमानी है
दौरे-तूफ़ां में कोई थामेगा तुझे
तेरी ये सोच ही बचकानी है !
- प्रीति 'अज्ञात'
चित्र : गूगल से साभार !
वक़्त की तंग गलियों से निकल,
फिर उसी दोराहे पर आकर खड़े हैं हम.
जहाँ सच और झूठ की दीवारों पर
विश्वास और अविश्वास की परछाईं है.
ख़्वाबों को मुट्ठी में बाँधे हुए,
जज़्बात की हालात से कैसी ये लड़ाई है?
कभी बनती और कभी बिगड़ती-सी,
आसमाँ पर बादलों की कितनी तस्वीरें !
कैसे खो-सी जाती हैं धुआँ होकर,
जैसे ज़िंदगी से मेरी तक़दीरें !
आज फिर भीगी पलकें हैं, और दिल में
वही ख़लिश-सी छाई है.....
रुँधे गले से कंपकँपाते शब्द कहते आकर
इस ज़ंग में भी तूने मात ही खाई है.
वक़्त का जोर या बदक़िस्मती का शामियाना,
अपनी तो हर हाल में रुसवाई है.
साथ देने को तैयार खड़ी खामोश-सी ये 'ज़िंदगी'
क्यूँ भला अब तक न हमें रास आई है !
- प्रीति 'अज्ञात'
सन्नाटे को रौंदती हुई
कुछ आवाज़ें
अपने ही कानों में पलटकर
शोर करतीं हैं
लाख पुकारो
चीखो-चिल्लाओ
घिसटते रहो, संग उनके
मनाओ, अनसुना हो जाने
का भीषण दु:ख
जो पास है, वही
कचोटता रहेगा
स्मृतियों की जुगाली बनकर !
उसका निष्ठुर मन
न जान सकेगा
'जो कहना था..
...बाक़ी ही रहा'
चलो, अलविदा
अब मथता रहेगा मन
उस असीम संभाव्य को
जिसकी तलाश में
बीता समय, मलता चला गया
धूल अपने ही चेहरे पर !
न सुना है, न सुन सकेगा
उम्मीद जो, हर रोज खोई
न शिकायत, न इंतज़ार
बस, वही कसक है बाकी
खैर... आसमाँ के उस पार से
चाहकर भी वापिस
कहाँ लौट सका है कोई !
- प्रीति 'अज्ञात'
आज 'हिन्दी दिवस' पर, 'हिन्दी' खुद कैसा महसूस करती होगी, उसके अंतर्मन में झाँककर जानने की कोशिश की है -
मैं 'हिन्दी'
बस आज ही, चमक रही
'मृगनयनी-सी'
कभी बनी
'वैशाली की नगर वधू'
तो कभी
'चंद्रकान्ता'
हो 'मधुशाला'
बहकी भी
खूब लड़ी 'झाँसी की रानी'
'पारो' बन चहकी भी !
दिखी कभी राहों पर
'तोड़ती-पत्थर'
तो कभी
किसी 'पुष्प की अभिलाषा'
कहलाई
'नर हो न निराश करो मन को'
कह 'मैथिली' ने
उम्मीद की अलख जलाई !
फिर क्यूँ बैठी हूँ
आज तिरस्कृत
'प्रेमचंद' की 'बूढ़ी काकी' बनकर
सिमटी हुई
अपने ही घर के
एक कोने में
कर रही इंतज़ार
कि कोई लेगा सुध
मेरी भी कभी
ठीक वैसे ही जैसे
'हामिद' आया था
'उस दिन'
'अमीना' का चिमटा लेकर !
पर 'हामिद' बन पाना
सबके बस की बात कहाँ
हर 'अहिल्या' को नहीं मिलता
अब कोई 'राम' यहाँ !
बात है 'आत्म-सम्मान' की
हाँ, अस्तित्व और स्वाभिमान की
खड़े होना होगा, स्वयं ही
सुना है....
'कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती'
'बच्चन' ने भी गुना है
'किसी उजड़े हुए को फिर बसाना कब मना है
है अंधेरी रात पर, दीवा जलाना कब मना है'
'हिन्दी' का 'दिया', अब हर घर में जलाना होगा, 'मातृ-भाषा' को उसका खोया सम्मान दिलाना होगा, एक वादा करना होगा, केवल आज ही नहीं....बल्कि हर दिन अपनी 'राष्ट्र-भाषा' को अपनाना होगा ! अन्य भाषाओं का भी मान रहेगा पर 'हिन्दी' किसी से कमतर है, इस सोच को सबके दिलों से निकालना ही होगा ! आख़िरकार...."हिन्दी हैं हम, वतन है...हिंदोस्ताँ हमारा"......सारे जहाँ से अच्छा !
- प्रीति 'अज्ञात'
बीती हुई यादों का जमघट,
अब भी हमारे साथ है.
खोए, सारे पल वो अपने,
बस दर्द का एहसास है.
अपनी ही मर्ज़ी से..., झूठे
रिश्तों को खारिज़ किया.
आज आँसू बन वो निकले,
हमको लावारिस किया.
दोस्त कहने को बहुत से,
पर साथ में कोई नहीं.
अश्क़ अब बहते रगों में,
आँख ये सोई नहीं.
अपनी किस्मत के हैं मालिक,
क्या है, जो ठोकर खाएँगे
तन्हा ही आए जहाँ में,
तन्हा ही हम जाएँगे...!
- प्रीति 'अज्ञात'