दुनिया हक्की-बक्की है इन दिनों
जैसे उड़ा दिए हैं रंग किसी ने
खनकती सुबह की सबसे दुर्लभ तस्वीर के
और पोत दिया है उस पर
लम्बी अवसाद भरी रातों का सुन्न सन्नाटा
हवा भी बुझे मन से बह रही है कुछ यूँ
जैसे बोझिल क़दमों से लौटते हैं
लाश को दफ़नाते हुए निराश लोग
चौड़ी चमकदार छःछः लेन वाली सड़कें
जहाँ आगे निकल जाने की होड़ में
पौ फटते ही एक-दूसरे को
कुचल देने को तैयार था आदमी
इन दिनों पड़ी हैं सुस्त, चुपचाप
जैसे घर के किसी कोने में
प्रेम के दो मीठे बोल की
बाट जोहता बैठा हो कोई उपेक्षित वृद्ध
हॉर्न की अनावश्यक चिल्लपों,
वो गाड़ियों की बेधड़क आवाजाही
ठसाठस भरी बसें
और बच्चे को धकेलती-दौड़ाती
स्टॉप पर छोड़ने जाती माँ
सब नदारद हैं दिन के सुनहरे कैनवास से
सामाजिक अट्टालिकाओं की ख़िसकती नींव तले
धँस चुकी हैं मेल-मिलाप की सारी बातें
सशंकित हैं हर चेहरा
और संवेदनाओं ने तो जैसे
और संवेदनाओं ने तो जैसे
ओढ़ लिया है भय का
किट्ट स्याह नक़ाब
किट्ट स्याह नक़ाब
हर पल व्यस्ततता का रोना रोता
दिन-रात शिक़वे-शिकायतें करता मनुष्य
यही समय ही तो चाहता रहा अपने लिए सदैव
और आज जबकि उसके
दोनों हाथों की मुट्ठियों में
दोनों हाथों की मुट्ठियों में
क़ैद हैं दिन के चारों पहर
एन उसी वक़्त किसी ने
दबोच दी है उसकी हँसी
उधर विश्व की सारी महाशक्तियाँ
एक अदृश्य विषाणु के समक्ष
ध्वस्त हो पड़ी हैं नतमस्तक
इधर आँखों में भय की परिभाषा लिए
हर दिशा में औंधा गिरा आदमी
अकस्मात् तलाशने लगा है
जीवन के नवीन मूल्य
- प्रीति 'अज्ञात'