मेरी तुम्हारी मुलाक़ात के बीच
शहरों की दूरियाँ भर ही न थीं
एकमात्र अड़चन
बल्कि हमने ही
हर इक मील के पत्थर पर
सैकड़ों प्रश्न बिठा रखे थे
हम मोड़ पर खड़े चेहरों की
तसल्लियाँ चाहते थे
हम चाहते थे कि जब हम मिलें
तो दोनों के मन पर
कोई बोझ न हो कभी
....और फिर हम कभी मिल ही न सके
मील के पत्थर उम्र भर हमारी
और हम उनकी राह तकते रहे
बीच के सारे प्रश्न
तमाम बेड़ियों में जकड़े
विवश, अनुत्तरित, श्रृंखलाबद्ध खड़े थे
वो चेहरे, जिनकी तसल्लियों पर
हमने सब क़ुर्बान किया
अब भी नाख़ुश हैं
वो सुख जिसे सबको बाँटने के फेर में
हम दुःखों की गठरी बनते रहे
अब भी उसका तानाबाना उधेड़
तमाचे की तरह जड़ दिया जाता है
हमारे ही चेहरों पर
कौन जाने क्यों देनी होती है
इच्छाओं की तिलांजलि
मिले हैं भला कभी
सारे प्रश्नों के उत्तर??
दिल पर मनों बोझ अब भी है......!
- प्रीति 'अज्ञात'