श्मशान के समीप से
गुजरते हुए कभी
सिहर जाता था तन
दृष्टिमान होते थे
वृक्षों पर झूलते
मृत शरीर
श्वेत वस्त्र धारण किये
भटकती दिव्यात्मा
उल्टे पैर चलती चुड़ैल
हू-हू करती आवाजें
भयभीत मन
कंपकंपाते क़दम
भागते थे सरपट
रौशनी की तलाश में
लौट आता था चैन
किसी अपने का चेहरा देख
परिवर्तन का दौर
या विकास की मार
कि दुःख में छूटने लगा
अपनों का साथ
व्यस्तता की ईंट मार
सहज है निकल जाना
आत्मसम्मान का बिगुल बजा
कुचल देना
दूसरों के सम्मान को
'इन' है इन दिनों
'बदलाव अच्छा होता है'
हम्म, होता होगा
तभी तो निडर हो
आसान है गुजरना
पुरानी, सुनसान राहों से
पर न जाने क्यूँ
अब बस्तियाँ
भयभीत करने लगीं हैं मुझे
- प्रीति 'अज्ञात'