Thursday, May 26, 2016

बस्तियाँ

श्मशान के समीप से 
गुजरते हुए कभी  
सिहर जाता था तन
दृष्टिमान होते थे 
वृक्षों पर झूलते
मृत शरीर 
श्वेत वस्त्र धारण किये 
भटकती दिव्यात्मा 
उल्टे पैर चलती चुड़ैल
हू-हू करती आवाजें 
भयभीत मन
कंपकंपाते क़दम
भागते थे सरपट 
रौशनी की तलाश में 
लौट आता था चैन 
किसी अपने का चेहरा देख 

परिवर्तन का दौर 
या विकास की मार 
कि दुःख में छूटने लगा
अपनों का साथ
व्यस्तता की ईंट मार
सहज है निकल जाना 
आत्मसम्मान का बिगुल बजा
कुचल देना 
दूसरों के सम्मान को
'इन' है इन दिनों

'बदलाव अच्छा होता है'
हम्म, होता होगा
तभी तो निडर हो 
आसान है गुजरना
पुरानी, सुनसान राहों से 
पर न जाने क्यूँ 
अब बस्तियाँ 
भयभीत करने लगीं हैं मुझे
- प्रीति 'अज्ञात'

Monday, May 23, 2016

वक़्त हँसता रहा......

सितम पर सितम रोज ढाता रहा 
वक़्त हँसता रहा मुस्कुराता रहा 

तेज क़दमों से वो दौड़कर चल दिया 
काट उस डाल को, जिसने था फल दिया
घर ये हैरान है, सब परेशान हैं   
आखिर ज़ख्मों को क्यूँ नोच खाता रहा 
वक़्त हँसता रहा.............

अपनी मिट्टी को छोड़ा शहर के लिए 
चाँद निकला था बस इक पहर के लिए 
वो आसमां की उड़ानों में मशग़ूल था 
बूढ़ा बरगद कहीं बड़बड़ाता रहा 
वक़्त हँसता रहा. ......... 

जो मायूस ख़्वाहिश दबी थी कहीं 
सहमी अब दुबक के छुपी है यहीं 
जबसे जाना ए मौत,तेरे फरमान को 
दिल, सीने से निकला और जाता रहा 
वक़्त हँसता रहा मुस्कुराता रहा.......!
- प्रीति 'अज्ञात'

अजी, थोड़ा तो जी लीजिए!

किसमें, कितना दोष है
छोड़ ये हिसाब अब 
किसके काम आ सके 
बस इसपे गौर कीजिये 
अजी, थोड़ा तो......... 

ज़िन्दगी के प्याले में 
ग़म और ख़ुशी संग हैं 
चुस्कियों के साथ फिर 
दोनों का मजा लीजिए 
अजी, थोड़ा तो......... 

दिल का क्या, ये गैर है 
इसका न मलाल कर
जो टूटने का दर्द है
बिखरों को जोड़ा कीजिये  
अजी, थोड़ा तो......... 

जो ज़ख्म पे मरहम रखे  
उसकी आस छोड़कर
वक़्त के हिसाब से 
चेहरे को सजा लीजिए
अजी, थोड़ा तो.........
 
मेला कहो सर्कस इसे
ये खेल दौड़भाग का 
अंत, फिर शुरुआत है 
खैर.. जाने भी दीजिये  
अजी, थोड़ा तो जी लीजिए!
© 2016 प्रीति 'अज्ञात'. सर्वाधिकार सुरक्षित