'मौन'...
अपनी ही आवाज़ के विरुद्ध
एक कमजोर आह्वान!
'आवाज़' जो सुनकर भी
तय न कर सकी
ध्वनि तरंगों के उस पार का
सहमा-सा रास्ता
सहमा-सा रास्ता
कुछ शब्द, गले में
अटके हुए अब भी
भावनाओं के झूले में
झूलते, उलझ रहे
अपनी ही बनाई
अदृश्य बेड़ियों के जाल में
कुछ स्मृतियाँ
सिसकियाँ बन बिखरती हुईं
अकेले में
पलकें दबाकर सोख रहीं
उनके भीतर की नमी
चल रही श्वांस
धड़कनों का हर सुर
गूँजता हुआ देता
कर्कश ध्वनि
एक पसरा हुआ सन्नाटा
किसी मज़बूत पत्थर के
अहंकार तले दबी हँसी
ओढ़ लेती है
विवशता का आवरण
'मौन' कुछ नहीं
एक विश्वासघात है
अपने ही कायर मन से,
जो बोलता तो बहुत है
पर कहता नहीं
हाँ, ये न आध्यात्म है
और न पूजा
'मौन' ज़रूरी नहीं
इंसान की 'मजबूरी' है!
- प्रीति 'अज्ञात'