Wednesday, March 23, 2016

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मन में विश्वास होता है 
प्रेम गीता क़ुरान होता है

ज़िन्दगी बन जाती है हसीं 
कोई जब मेहरबान होता है

बदलते चेहरों से गिला कैसा 
ख़ुदा सबपे कहाँ मेहरबान होता है 

हुनर खिल उठता है और भी 
कोई अपना जो कदरदान होता है

दिल औ' ईमां की इज़्ज़त रही नहीं बाकी 
रिश्ता दो दिनों का मेहमान होता है 

घर बने सबका ये मुमकिन कहाँ 
कुछ के हिस्से फ़क़त मकान होता है
- प्रीति 'अज्ञात'

टुकड़ा-टुकड़ा तथ्य (अकविता)

बुरे को बुरा बोलने के ठीक पहले 
घूमता हुआ दिमाग
करता है एकालाप 
ओह, सब क्या सोचेंगे 
क्या कहेंगे
मेरी इमेज
'उफ्फ, उसका क्या?'

किसी दुर्घटनास्थल से गुजरते समय 
हमारी उपस्थिति को निरर्थक बताते हुए 
शरीर के साथ ही धीरे-धीरे  
सरक जाते हैं सवाल 
फिर वही प्रलाप  
मुझे क्या करना 
कहाँ है  इतना फ़ालतू समय
पुलिस का चक्कर 
बेकार के पचड़े
'क्या फ़र्क़ पड़ जायेगा?'

राजनीति, अधर्म, अन्याय के विरुद्ध 
बोलते समय होती है घबराहट
आईना बन समाज करता वार्तालाप 
कहीं कोई मार न दे 
मेरा घर-परिवार 
आह, उसका क्या होगा मेरे बाद?
स्वार्थी, भीरु मन दबोच देता है 
अपनी ही जुबान
बड़ी निर्दयता से
एक तसल्ली के साथ 
'मेरे करने से कौन-सा देश सुधर ही जायेगा'

लेकिन देखो न
कुछ न करने के बाद भी 
चौंकता है तुम्हारा ह्रदय
हर अंजानी आहट पर
कहीं कोई चोर तो नहीं 
सहमते तो होगे तुम भी कभी 
किसी की अस्मिता तार-तार होते देख
कहीं अगली बार कोई तुम्हारे किसी....
लगा लेते हो न गले 
अपने बच्चे को सीने से चिपका 
किसी और के जिगर के टुकड़े को 
सरे-राह तड़पते देख  
आग में झुलसते इंसां की छटपटाहट से 
सुलग उठता होगा, तुम्हारा भी तन
दंगे-फ़साद में खिड़कियाँ बंद कर 
याद तो तुमने भी खूब किया होगा
ईश्वर का हर रूप!

फिर इन भिंचती मुट्ठियों को जो खुलने नहीं देता 
सुलगता है भीतर कहीं पर उबलने नहीं देता 
बाँध रक्खा है जिसने तुम्हें सदियों से 
ढोते जा रहे 
ज़िंदा लाश-सी ज़िंदगी तुम्हारी
सच्चाई से मुंह फेरकर 
गर हर रोज मरने से बेहतर 
कुछ रोज का जीना लगे 
तो बस आज, अभी,
ठीक इसी वक़्त 
निकाल फेंको इस शब्द को 
अपने दिल, दिमाग और शब्दकोष से भी 
ये 'डर' जो मार रहा
रोज-रोज तुम्हें, मुझे 
इस समाज को!
खदेड़कर रख दो इसे 
इस समाज के ही बाहर 
और दे दो देशनिकाला
'डरने' दो इस 'डर' को
अपने ही एकांत से
हाँ, अब तुम जियो 
कुछ पल चैन से
लोग कहते हैं
मुई ये 'ज़िंदगी'
बड़ी खूबसूरत है! 
- प्रीति 'अज्ञात'

Monday, March 14, 2016

वो दुनिया

समय की खिड़कियों से
झांकते हुए 
अचंभित हो देखती हूँ 
स्वयं को 
उछलती-कूदती  
रटती पहाड़े 
दो एकम दोओओओ 
दो दूनी चाआआर 
और लगता है 
कितनी संगीतमय थी दुनिया

रंगबिरंगे फूलों से भरी
बगिया के बीच
उकड़ू बन बैठी 
चित्रकारी करती हुई 
रंग भरती, खिलखिलाती
कितनी रंगीन थी तब दुनिया 

सारे गुणा-भाग, जोड़-बाकी
नाचते थे उँगलियों पर 
रसायन के सम्मिश्रण में 
दोनों तत्वों की पहचान हो 
या डार्विन का विकासीय सिद्धांत
आसान था, सबको समझ पाना 
कितनी सीधी-सरल थी तब दुनिया 

मन के गलियारों में
ताजा अख़बार बन 
छन्न-सी गिरती है 
एक हँसी 
अरे, आ न यार 
चल, बहुत पढ़ ली 
अहा, कितनी आत्मीयता 
कैसी ऊर्जा समाहित थी 
इन शब्दों में
कितनी अपनी थी तब दुनिया

इन दिनों 
छल-कपट से भरे 
ईर्ष्यालु लोगों की भीड़ में
दिलों की तलहटी में बैठ
कहीं गुम हो गया है प्रेम
बीते सुंदर पलों की तरह  
गले मिलते ही सताता है 
छुरा घोंपने का भय
स्वार्थ और मौका-परस्ती के 
द्रव्य में घुलती हुई 
खो गई है वो दुनिया  
जिसे ढूंढते हुए खो जाएँगे
हम सब भी यहीं-कहीं 
बीत चुकी है, वो दुनिया
बदल गई अब दुनिया...! 

© 2015 प्रीति 'अज्ञात'. सर्वाधिकार सुरक्षित