Sunday, June 21, 2015

अंतरराष्ट्रीय योग-दिवस की अनंत शुभकामनाएँ !

धर्म और राजनीति से परे, एक क़दम जागरूकता और सकारात्मकता की ओर ! कुछ शब्द, बच्चों के लिए -

अहा, अद्भुत ये संयोग
हर जगह इसका प्रयोग
ज्ञान बढ़ाए, बुद्धि जगाए
बोनस में चेहरा चमकाए
और रखे निरोग

हर सुंदर शब्द में शामिल है जो
देता है सहयोग
चल क़दम बढ़ाएँ
स्वस्थ रहें हम
कर इसका उपयोग

आशाओं के दीप जलाएँ
जीवन से हर रोग भगाएँ
सच्ची-अच्छी सोच रखें
न रहे कोई वियोग
आओ हम सब साथ चलें
अब नित दिन करके योग
- प्रीति 'अज्ञात'

HAPPY FATHER'S DAY !

Not a Poem....Pure Emotions !
Dedicated to all the Fathers, Who are working so hard
A Salute to You All & Ofcourse
HAPPY FATHER'S DAY !

तुम कहते कुछ भी नहीं
पोंछ देते हो बस, कभी-कभार
माथे-से छलकते आँसू
और देखते हो अक़्सर
आसमाँ को
मानो पूछ रहे हो
उस ऊपरवाले से
मैनें किया क्या है, यार!

ह्म्‍म्म्म, वाजिब है तुम्हारा
उससे ये पूछना
आख़िर घर से निकलते समय
और भीतर क़दम रखते ही
शिकायतों की आड़ में दबी
सवालों की बौछार
हताश तो कर ही देती है न !

क्यूँ नहीं सोचता कोई
कि सुबह से रात तक वो
रोटी की जुगाड़ में है लगा
कर रहा पूरी तुम्हारी हर अपेक्षा
लेता है छुट्टियाँ
भले खानी पड़ें झिड़कियाँ
फिर असल छुट्टी का दिन भी
गुज़ार ही देता है
फ़रमाइशों की सूची तले पिसकर

भाग रहा दिन-रात
हर मौसम में
कि सलामत रहे 
उसके अपनों के चेहरों पर
वही पहले-सी मुस्कान
सोचो, कैसा लगता होगा उसे
जब वही चेहरे पलटकर कह दें
आपने किया क्या है, हमारे लिए
ओह्ह्ह, दुखद! काश, सोचो
कभी यूँ भी.... 
अरे, तो फिर वो
अब तक आखिर,जीता रहा 
किसके लिए?

वो तब भी चुप था
वो अब भी चुप है
माँ की महानता के आगे
उसकी क़ुर्बानियाँ छुपती गईं
निभाता रहा वो उन्हें तब भी
निभा रहा अब भी
वो मौन है
बस, उसके आँसू 
माथे से ढुलक पड़ते हैं 
पोंछ देता है उन्हें
अपनी ही शर्ट की
बाहों से
क्या करे आख़िर...
'पिता' जो है !
- प्रीति 'अज्ञात'

यूँ ही .....

सोचती हूँ 
तुम मिलोगे 
तो ये कहूँगी 
वो कहूँगी 
लड़ूंगी घंटों 
शिकायतें करुँगी 
तुम सुनते रहोगे चुपचाप 
कुछ भी कहे बग़ैर 
और मेरे रुकते ही 
खी -खी कर बोल उठोगे 
हुँह , तो क्या हुआ !
और फिर .....
फिर मैं हंसने लगूँगी 
हम हंसने लगेंगें 
और उड़ने लगेंगे 
शिकायतों के पर 
पागल मन की 
बेवकूफियों के सबूतों को 
मिटाने की जल्दी में 
थमा देंगे अचानक ही
छुपाई हुई गिफ्ट 
एक दूसरे को 
ये कहते हुए 
लो, मरो 
थक गए, इसे संभाल-संभालकर 
पर अगली बार ऐसा किया न 
तो क़सम से 
चटनी ही बना दूंगी तेरी ! 
- प्रीति 'अज्ञात'

** एक मुलाक़ात, हर शिक़ायत को कैसे मौन कर देती है न ! पर उस मुलाक़ात तक शिक़वे -शिकायतों का दौर चलता ही रहता है ! है, न ! 




बचपन की यादें

कैसा सूनापन था उस दिन 
घर के हर इक कोने में, 
नानी तू जिस दिन थी लेटी 
पतले एक बिछौने में.

फूलों-सा नाज़ुक दिल मेरा 

सबसे पूछा करता था, 
कहाँ गया, मेरा वो साथी 
जो, सुख से झोली भरता था.

कैसे तू अपने हाथों से 

हर पल मुझे खिलाती थी, 
माथे की सलवटों में तेरी 
बिंदिया तक मुस्काती थी.

तू प्यार से मिलती, गले लगाती 

जाने क्यूँ रोया करती थी? 
तेरे गालों के गड्ढों से मैं 
लिपट के सोया करती थी.

पर मन मेरा था, अनजाना-सा 

कुछ भी नहीं समझता था, 
तुझसे जुदा होने का तब 
मतलब तक नहीं अखरता था.

अब आँगन की मिट्टी खोदूं 

तेरी रूहें तकती हूँ, 
संग तेरे जो चली गईं 
खुशियाँ तलाश वो करती हूँ.

आँसू बनकर गिरती यादें 

बस इक पल को तू दिख जाए. 
पर दुनिया कहती है, मुझसे ये 
जो चला गया, फिर न आए !
- प्रीति 'अज्ञात'

पूरा फिल्मी ही है, न ?

समंदर किनारे बैठे
तुम और मैं
सुनेंगे धड़कनों के गीत
अपने मन की ताल पर

हेडफोन का एक-एक सिरा
कानों में ठूँसकर
देंगे विदा दुनिया की
बेहूदा आवाजों को

बाँध लेंगे हौले से
मुट्ठी भर सपना
हाथों को पीठ पीछे
चुपके से बाँधकर

गिनेंगे एडियों तक
छूकर लौटती हुई
अनगिनत इच्छाओं की
बेचैन लहरों को

दूर आसमाँ से टकराता
भावनाओं का ज्वार
देगा भरम मिलन का
इधर, चुप्पी ओढ़ लेगा ह्रदय

नाराज बच्चे-सी, समेटनी होंगी
बेबस मन की तसल्लियाँ
हक़ीक़त की क्रूर दुनिया में
बस यही मायूसी तो मुमकिन है

रेत पर लिखे दो नाम
मिलते हैं, एक-दूसरे से
फिर हो जाते हैं ओझिल
न जाने किन दिशाओं में

चीखती-चिल्लाती स्मृतियाँ
वक़्त के बहाव को
टुकुर-टुकुर देख
बदल लेती हैं, अपनी करवटें

ह्म्‍म्म...यही सच है
जीवन का
बाकी सब तो
पूरा फिल्मी ही
है, न ?
- प्रीति 'अज्ञात'


'अतुकांत कविता'

बेतुकी इक धुन 
काग़ज़ों में लिपटी उदासियाँ
गुमशुदा-से स्वप्न
लंबी इक डगर
सूना, अनजान सफ़र 
कुछ शब्द अन-उकरे
कुछ बादलों में संघनित भरे 
कुछ शुष्क हो, चरमराए
समय की चिलचिलाती धूप में
कुछ वाष्पित हो, 
ढूँढा किए अपने निशाँ
उसी गहरे कूप में 
वहीं ठिठककर रह गये
गिरते रहे लफ्ज़ बन
कुछ बीच राह ही ढह गये
और फिर भटके रास्ते
जुड़ा कोई कहीं
उम्मीद जब थी ही नहीं
शब्द,रिक्त-स्थान,शब्द
शब्द.....? शब्द.....??
क्रम टूटा, बिखरा,खो गया
बढ़ता रहा, तितर-बितर हो
नैराश्यता की ओर!

लय, राग-अनुराग से विमुख
गतिहीन जीवन, अलक्षित-सी सोच
समय से परे
यादों के अनियंत्रित ताबूत में
रोज़ ही एक गहरी कील
खोदती जाती भीतर तक
स्मृतियों का गहरा कुँआ
गोते लगाती, डूबती-उतराती
कृत्रिम-मुस्कान के आवरण तले
अपने होने का भरम बनाती
हारती-टूटती ज़िंदगी
और है भी क्या
एक 'अतुकांत कविता' के सिवा !
- प्रीति 'अज्ञात'