Wednesday, September 19, 2012

Chhoti - Chhoti Khushiyan......


छोटी-छोटी खुशियाँ...... १९--२०१२ 


रात से ही आसमान में कुछ अज़ीब सा समाँ है. काले घने फैले बादल उम्मीद जता रहे हैं, कि आज तो हम बरस ही जाएँगे. बारिश का इंतज़ार तो सभी को रहता है, हाँ..सबकी वज़ह अलग-अलग हो सकती हैं.किसान को फ़सल की चिंता सताती है,आम जनता को महँगाई की फिक्र,सरकार को सड़क पर भरे गड्ढों की पोल खुल जाने की, किसी को उस खुशबू की...जो कि पानी की बूँदों के मिट्टी पर गिरते ही सारे वातावरण को एक सुगंध से सराबोर कर देती है. पर सबसे ज़्यादा भोली और निर्दोष इच्छा होती है...उस बच्चे की, जो पूरी रात बार-बार खिड़की से बाहर झाँककर ये देखा करता है,कि "कहीं बारिश रुक तो नही गई!". उसे तो अपनी 'रेनी-डे' की छुट्टी से मतलब होता है, बाकी दुनिया की सोचने की उम्र अभी नहीं हुई उसकी !! 


 बरसात से जुड़ी कितनी ही यादें है,हम सबकी! कितने ही खूबसूरत पल थे वो, जब हम काग़ज़ की नाव चलाया करते थे. यूँ तो आज भी वही हाल हैं,पानी निकास के.....पर तब पानी कुछ ज़्यादा ही भर जाया करता था. माँ के लाख मना करने के बावज़ूद भी कोई ना कोई बहाने से खिसक लिया करते थे. चेहरे की चमक देखते ही बनती थी, जब हमारी नाव शान से आगे बढ़ती थी,और पड़ोसी के बच्चे की नाव का काग़ज़ गल जाया करता था. कैसी शान से कहा करते थे.."तू ना, अगली बार से थोड़े मोटे काग़ज़ की बनाना..फिर अच्छा रहेगा"! एक गर्व भरी मुस्कान भी बारिश की बूँदों की तरह चेहरे से टपक जाया करती थी.




चप्पलें कीचड़ में फँस जाया करती थी. कभी उस टूटी चप्पल को हाथ में लेकर आते थे या कभी पैरों से घसीटकर! पर लक्ष्य तक तो ले ही आते थे. माँ की डाँट सुनते और बेशरम से खी-खी करके हँसते! पता जो रहता था कि, अभी गरमा-गरम पकोडे ये माँ ही बनाके खिलाएँगी. अपने माता-पिता की क़ीमत का एहसास अक़सर एक उम्र के बाद ही हुआ करता है! जिसे जितना जल्दी समझ आए, बेहतर!! 

स्कूल से लौटते समय दिल तो करता था कि उस एक छाते में पूरी क्लास को ही छुपा लें, पर चिंता सबको अपने बॅग की होती थी. ऐसा कुछ नहीं...वो तो इसलिए कि दोबारा ना लिखना पड़े! वैसे उन दिनों ये भी आराम था...लाइट चली जाया करती थी, और हम बेचारे मज़बूरी में नहीं पढ़ पाते थे !ही-ही-ही.... 
एक फ़र्क ज़रूर आया है, तब और अब में...उस समय चाहे कितनी भी गंदगी या कीचड़ होती थी..तो भी उसमें आराम से यूँ चले जाया करते थे, गोया फूलों के बाग़ में धँस के जा रहे हों. 'लुक' की इतनी परवाह नहीं हुआ करती थी,उन दिनों! 
लीजिए, इस बीच बारिश शुरू भी हो गई...पर अब हमारी चिंताएँ कुछ अलग हैं.... 
जब से नहीं तुम,घर है सूना 
आँखों से है,मेघ बरसता! 
काश! अब जाओ फिर से 
घर हमारा है, तरसता!! 
खो गये तुम हो कहाँ, 
संदेश भी आता नहीं! 
ढूँढा किए, हर घर में तुझको  
क्यूँ खबर,भिजवाता नहीं!! 
यूँ तो पहले भी,था तुमने 
कई बार ऐसा ही किया! 
पर लौट के आए थे,जब तो 
झूम गया था,ये हिया!! 
बहुत हुआ,अब भी जाओ 
दीवारों को कुछ दो दिलासा! 
कह दो ना, कल दर्शन दोगे 
हे! हमारे काम वाले काका!! 
दूर रेडियो पर भी हमारी भावनाओं को सहारा देता हुआ, गीत बज रहा है.... 
"आएगा, आएगा,आएगा,आएगा......आने वाला...आएगा..आएगा" ये रेडियो सिटी को भी हमारे मूड की खूब ख़बर रहती है, सोचते हुए हम उठ खड़े हुए......!