पहने तो करता है,चुर्र....
हमारे प्रेरणास्रोत 'गुलज़ार सर' ने जब "इब्न-ए-बतूता....बगल में जूता" लिखा था,तब उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा होगा, कि लोग उनकी इस बात को इतनी गंभीरता से लेंगे. पर आजकल की खबरों में ऐसी बातें कितनी आम हो गईं हैं,कि हमें भी हैरत है!
हमने तो बचपन से ही "मुँह में राम, बगल में छुरी" वाली कहावत सुनी थी, ये 'जूता' तो अब बगल में आने लगा है. वैसे आइडिया ठीक सा ही है...'मार भी दो और मर्डर भी ना हो'! छि:,ये भी कोई बात हुई,घटिया सोच! पर हमें लगता है,कि आने वाले दिनों में इस विषय पर निबंध आ सकता है. ज़रा सोचिए तो ! 'रामू ने राजू को जूता मारा' विषय पर कैसे लिख सकते हैं ? चलिए हम बताते हैं......
सबसे पहले तो इस खेल के नियम
*हर बार एक अलग पार्टी का बंदा दूसरे को मारेगा,जिससे मीडिया वालों को अच्छा कवरेज मिले!
*जूता देशी हो या विदेशी, पहले ही तय कर लो. वरना जनता विदेशी प्रभाव का आरोप लगा सकती है!
*जूते का टाइप भी निश्चित हो, मतलब; बरसाती हो,लेदर का हो, स्पोर्ट्स हो या केनवास, क्यूँकि सबसे अलग-अलग तरह की चोटें लगती हैं जी! अनियमितता के चक्करों में कौन पड़े भाई!
*मारे गये जूते 'राष्ट्रीय संपत्ति' का हिस्सा माने जाएँगे!
*ज़रूरत पड़ने पर एक 'जूता-संग्रहालय' भी बनाया जाएगा, जिससे आम जनता को इसकी जानकारी हो..कि किसने कब और कहाँ इसका प्रयोग किया था!
अब खिलाड़ी बनने के नियम
*वो खुद कमज़ोर हो तो चलेगा,पर जिसे जूता पड़ना है, उसका सीना चौड़ा हो,ताकि लक्ष्य प्राप्ति आसानी से हो सके!
*अपनी बेइज़्ज़ती के लिए तैयार रहें, आपको लात-घूँसों का ईनाम मिल सकता है!
*जूता नया था या पुराना? हां, रे..इससे मारने वाले की आर्थिक स्थिति का अंदाज़ा होता है!
*जूते की गति क्या थी?
*वह शरीर के किस भाग से टकराया?
*क्या वहीं लगा,जहाँ निशाना साधा था(इससे पता चलता है, कि कहीं मुलज़िम के घर में ऐसी कोई पुरानी परंपरा तो नहीं)!
जूता ही क्यों चुना?
*जी, सर ! ये आसानी से उपलब्ध था! इसे अलग से ले जाना भी नहीं पड़ता!
*इसकी ग्रिप भी अच्छी होती है और थ्रो भी!
*लाइसेन्स भी नहीं लगता, सर!
वजह क्या थी?
*क्या ये जूता उसे काट रहा था, और वो दुनिया के सामने उसे नीचा दिखाना चाहता था?
*कहीं इसने किसी और का जूता तो नहीं इस्तेमाल किया? हो सकता है मीलॉर्ड...ये एक सोची समझी साज़िश हो!
*शायद इसे इस एक जूते से ज़्यादा प्यारी वो दो वक़्त की रोटी थी, जो जेल में मुफ़्त में मिल जाएगी !
विशेष
हां-हां...यही सच है! सब तंग आ गये हैं, ग़रीबी से, बेरोज़गारी से, भ्रष्टाचार से! तंग आ गये हैं अपने स्वार्थ की रोटी सेंकने वाले राजनीतिक दलों से!
"कुछ करो, कि सुधार हो,निस्वार्थ जब सरकार हो!
संसद चले तो शांति से,पर दूर भ्रष्टाचार हो!
पैसे की जब ना मार हो,ना कोई बेरोज़गार हो!
फिर दूसरों के सामने,काहे को अपनी हार हो!"
बहुत हुई ये मारामारी ! शांति से बैठकर बात कीजिए ना! 'मानहानि' का भी ख़तरा नहीं और ना ही 'मनी हानि' का! और क्या 'जूते' सस्ते थोड़े ही ना आते हैं आजकल!
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