Monday, June 6, 2016

स्त्री

बचपन उनमें लूट रही हूँ
अपने सपने कूट रही हूँ 

कभी छुपी थी 
डर बैठी इक कोने में
कभी लिपट रोई संग
माँ के बिछौने में
गया समय ले साथ 
बीती बात सभी 
अब खुद से ही रूठ रही हूँ
अपने सपने.........
 
रिश्तों को अपनाया
जिया भरम ही था
आया हिस्से जो 
पिछला बुरा करम ही था 
है किससे क्या कहना
और किसकी ख़ातिर लड़ना
थोड़ा-थोड़ा टूट रही हूँ
अपने सपने......

वो जीवन भी क्या 
जो किश्तों में पाया
न समझी ये दुनिया 
है इसकी क्या माया
थी कोशिश पल भर
हंसकर जी लेने की 
भीतर ही खुद छूट रही हूँ
अपने सपने.......
- प्रीति 'अज्ञात'

3 comments:

  1. ये दुनिया है जीने कहाँ देती है ...नारी मन की विवशता को लिखा है ...

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  2. निशब्द... :) just want to say hats of to you mam.....

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