Thursday, May 26, 2016

बस्तियाँ

श्मशान के समीप से 
गुजरते हुए कभी  
सिहर जाता था तन
दृष्टिमान होते थे 
वृक्षों पर झूलते
मृत शरीर 
श्वेत वस्त्र धारण किये 
भटकती दिव्यात्मा 
उल्टे पैर चलती चुड़ैल
हू-हू करती आवाजें 
भयभीत मन
कंपकंपाते क़दम
भागते थे सरपट 
रौशनी की तलाश में 
लौट आता था चैन 
किसी अपने का चेहरा देख 

परिवर्तन का दौर 
या विकास की मार 
कि दुःख में छूटने लगा
अपनों का साथ
व्यस्तता की ईंट मार
सहज है निकल जाना 
आत्मसम्मान का बिगुल बजा
कुचल देना 
दूसरों के सम्मान को
'इन' है इन दिनों

'बदलाव अच्छा होता है'
हम्म, होता होगा
तभी तो निडर हो 
आसान है गुजरना
पुरानी, सुनसान राहों से 
पर न जाने क्यूँ 
अब बस्तियाँ 
भयभीत करने लगीं हैं मुझे
- प्रीति 'अज्ञात'

1 comment:

  1. दर तो बस्तियों में ही होता है ... मुर्दे तो अपने सनाते से ही आपकी रखवाली कर देता हैं ...
    गहरी रचना है ...

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