डूबती साँसों की निगरानी करते
समझदारी के कौवे अब
सबकी निगाहों से बचकर
लीलने लगे हैं ज़िंदगी क़तरा-क़तरा
वो जिम्मेदारियों को
अपनी सलामती की जिम्मेदार ठहरा
निश्चिंत होना चाहती है
कि इनके मजबूत हाथों ने ही
गाड़े रखा होगा उसे जमीन में कहीं
चंद तस्वीरों पर
ठहरी हुई निगाहें
खिसियानी बिल्ली-सी
शुक्रगुज़ार होने लगती हैं
उन ऋणों की भी
जिनसे मुक्त होना बाकी है अभी
नहीं बनना उसे महान
मर्यादा के खोखले
सुरक्षा-कवच की आड़ में
जो चीर देता है
भीतर-ही-भीतर
जिम्मेदारियाँ भी ख़ैर..
कोरी कायरता पर
आह भरते हुए
चंद शब्दों की चाशनी का
लिजलिजा लेप ही तो हैं
न रहे भरम का चिह्न भी शेष
तो आवश्यक है
इसी जन्म में
हर ऋण से मुक्त हो जाना
पुनर्जन्म, फिर मिलेंगे,
रिश्ता जनम-जनम का,
पक्का वादा, सच्चा प्रेम
सब विषय हैं असल चरित्रों की
झूठी, भ्रामक कविताओं के
वास्तविकता के धरातल पर
ये ठगी औेर
भावनात्मक खेल के सिवा
कुछ भी नहीं!
सब कुछ जानते-समझते हुए
जीना होगा उसे फिर भी
जब तक हर बोझ
हल्का न हो जाए
या फिर ढोना भारी न लगे!
- प्रीति 'अज्ञात'
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