कविता, गीत, गद्य
तितर-बितर अहसास
बालपन से ही
साथी पुराने
थामा मेरा हाथ
नहीं देते धोखा कभी
चुन लेती हूँ शब्द
नमक की तरह
इच्छानुसार
अपने विषय,
अपनी मर्ज़ी से
समझते हैं ये सब
बख़ूबी मुझे!
फड़फड़ाता मन
उठाता सवाल
जन्मती इच्छायें
उम्मीदों की ठिठोली
हंसती कभी खुद पर
तो कभी मायूस हो
बेबस मौन ओढ़ लेती
सच और झूठ के
अंतर्द्वंद्व में घायल
अनर्गल स्वप्न
बड़बड़ाते हुए
अपनी ही श्वासों की
गलतफहमियाँ से
टूट जाते हैं
हर सुबह बेआवाज
कुछ लफ्ज़ बिखरते
कोरे पन्नों पर
और यूँ ही
कभी मरती तो कभी
जी लेती हूँ इनमें
थोड़ा-थोड़ा
- प्रीति 'अज्ञात'
शब्दों के बीच जीने की चाह ... बहुत खूब ..
ReplyDelete