बुरे को बुरा बोलने के ठीक पहले
घूमता हुआ दिमाग
करता है एकालाप
ओह, सब क्या सोचेंगे
क्या कहेंगे
मेरी इमेज
'उफ्फ, उसका क्या?'
किसी दुर्घटनास्थल से गुजरते समय
हमारी उपस्थिति को निरर्थक बताते हुए
शरीर के साथ ही धीरे-धीरे
सरक जाते हैं सवाल
फिर वही प्रलाप
मुझे क्या करना
कहाँ है इतना फ़ालतू समय
पुलिस का चक्कर
बेकार के पचड़े
'क्या फ़र्क़ पड़ जायेगा?'
राजनीति, अधर्म, अन्याय के विरुद्ध
बोलते समय होती है घबराहट
आईना बन समाज करता वार्तालाप
कहीं कोई मार न दे
मेरा घर-परिवार
आह, उसका क्या होगा मेरे बाद?
स्वार्थी, भीरु मन दबोच देता है
अपनी ही जुबान
बड़ी निर्दयता से
एक तसल्ली के साथ
'मेरे करने से कौन-सा देश सुधर ही जायेगा'
लेकिन देखो न
कुछ न करने के बाद भी
चौंकता है तुम्हारा ह्रदय
हर अंजानी आहट पर
कहीं कोई चोर तो नहीं
सहमते तो होगे तुम भी कभी
किसी की अस्मिता तार-तार होते देख
कहीं अगली बार कोई तुम्हारे किसी....
लगा लेते हो न गले
अपने बच्चे को सीने से चिपका
किसी और के जिगर के टुकड़े को
सरे-राह तड़पते देख
आग में झुलसते इंसां की छटपटाहट से
सुलग उठता होगा, तुम्हारा भी तन
दंगे-फ़साद में खिड़कियाँ बंद कर
याद तो तुमने भी खूब किया होगा
ईश्वर का हर रूप!
फिर इन भिंचती मुट्ठियों को जो खुलने नहीं देता
सुलगता है भीतर कहीं पर उबलने नहीं देता
बाँध रक्खा है जिसने तुम्हें सदियों से
ढोते जा रहे
ज़िंदा लाश-सी ज़िंदगी तुम्हारी
सच्चाई से मुंह फेरकर
गर हर रोज मरने से बेहतर
कुछ रोज का जीना लगे
तो बस आज, अभी,
ठीक इसी वक़्त
निकाल फेंको इस शब्द को
अपने दिल, दिमाग और शब्दकोष से भी
ये 'डर' जो मार रहा
रोज-रोज तुम्हें, मुझे
इस समाज को!
खदेड़कर रख दो इसे
इस समाज के ही बाहर
और दे दो देशनिकाला
'डरने' दो इस 'डर' को
अपने ही एकांत से
हाँ, अब तुम जियो
कुछ पल चैन से
लोग कहते हैं
मुई ये 'ज़िंदगी'
बड़ी खूबसूरत है!
- प्रीति 'अज्ञात'
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