Monday, March 14, 2016

वो दुनिया

समय की खिड़कियों से
झांकते हुए 
अचंभित हो देखती हूँ 
स्वयं को 
उछलती-कूदती  
रटती पहाड़े 
दो एकम दोओओओ 
दो दूनी चाआआर 
और लगता है 
कितनी संगीतमय थी दुनिया

रंगबिरंगे फूलों से भरी
बगिया के बीच
उकड़ू बन बैठी 
चित्रकारी करती हुई 
रंग भरती, खिलखिलाती
कितनी रंगीन थी तब दुनिया 

सारे गुणा-भाग, जोड़-बाकी
नाचते थे उँगलियों पर 
रसायन के सम्मिश्रण में 
दोनों तत्वों की पहचान हो 
या डार्विन का विकासीय सिद्धांत
आसान था, सबको समझ पाना 
कितनी सीधी-सरल थी तब दुनिया 

मन के गलियारों में
ताजा अख़बार बन 
छन्न-सी गिरती है 
एक हँसी 
अरे, आ न यार 
चल, बहुत पढ़ ली 
अहा, कितनी आत्मीयता 
कैसी ऊर्जा समाहित थी 
इन शब्दों में
कितनी अपनी थी तब दुनिया

इन दिनों 
छल-कपट से भरे 
ईर्ष्यालु लोगों की भीड़ में
दिलों की तलहटी में बैठ
कहीं गुम हो गया है प्रेम
बीते सुंदर पलों की तरह  
गले मिलते ही सताता है 
छुरा घोंपने का भय
स्वार्थ और मौका-परस्ती के 
द्रव्य में घुलती हुई 
खो गई है वो दुनिया  
जिसे ढूंढते हुए खो जाएँगे
हम सब भी यहीं-कहीं 
बीत चुकी है, वो दुनिया
बदल गई अब दुनिया...! 

© 2015 प्रीति 'अज्ञात'. सर्वाधिकार सुरक्षित 

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