Monday, January 4, 2016

वसीयत

मेरी 'ज़िंदगी' की वसीयत में
तुम्हें देने को कुछ भी नहीं
है एक कुचला, मासूम बचपन
खोई हुई अल्हड़ता
चन्द दबी हुई शैतानियाँ
कुछ यतीम इच्छाएँ
मौन हुए अल्फ़ाज़
सूखे हुए आँसू
और संदूकची में बंद,
निहायत ही, बेफ़िज़ूल, बेशर्म-से 
मुँह चिढ़ाते हुए ख़्वाब!

क्यूँ न बदल दें, इस बार
अंतिम समय की रस्मों को
न दूं, मैं तुम्हें कुछ भी
बस सौंप दूं, आम औरत की
'ज़िंदगी' की आम किताब
पढ़ना आकर्षक मुखपृष्ठ की
आड़ में छुपे हर कराहते पन्ने को
दर्द में भीगे शब्द, नगमों में डूबे
ज़ख़्मों की गिनती बेहिसाब!

ऐ, दुनिया! हो सके तो पनपने देना
अपने आँगन की 
हर कोमल कली
कि खिलखिला सके कभी
वो भी बन के गुलाब
करे अठखेलियाँ, लाए बहार
रहे मुखरित, झूमे, गुनगुनाए
उड़े पवन की तरह
उन्मुक्त पंछी बन 
न करना तुम कोई सवाल-जवाब!

वो आँसू और ख्वाब नादां ही रहे
न सीखे जो कभी जीने का हुनर
न करेंगे शिक़वा , अब जाते-जाते
बस उड़ा देना इन्हें, इक धानी चुनर
फिर हो जाएगा सब गुम
चुपचाप ही इस देह के साथ
मुलाक़ात का अब कोई 
और वक़्त मुक़र्रर कर दो
जो देना चाहो सुकूँ
रूह को मेरी, तो
आज किसी बच्चे का
बचपन 'ज़िंदा' कर दो!
- प्रीति 'अज्ञात'

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