Monday, June 30, 2014

बारिश - २

सुनते आए हैं सदियों से -
'जो गरजते हैं, वो बरसते नहीं'
शांत जो कर लेते हैं, 
अपने हृदय की व्यथा चिल्ला-चिल्लाकर
तेज रोशनी में तमतमाकर
पर बंद हो जाते हैं, उनके भय से
सारे दरवाजे-खिड़कियाँ और रोशनदान भी !
लेकिन जो कह नहीं पाते
भरा करते हैं एक सहमी-सी हुल्कारी 
और काले घुप्प अंधेरे में, चुपचाप ही
बरस पड़ते हैं, कभी धीमी बारिश बन 
तो कभी मूसलाधार, 
फिर भी रखते हैं साथ उम्र-भर, 
उम्मीद की इक खुली खिड़की !

प्रीति 'अज्ञात'

बारिश - १

आज आसमाँ का आँचल गीला क्यूँ है
लग रहा है जैसे रोई हो रात
चाँदनी के बिन बिलख-बिलख
तभी तो स्याह हुआ रंग इसका
फैला हुआ काजल, और सूजी आँखें
सुबह से पसर गईं, रोशनी के आगे
लोग इन्हें काली घटायें कहें तो कहें
अंजान हैं, कि हर बरसता बादल
सुनाता है, नित नई कहानी
उमस, घुटन और संघर्ष की 
जो कभी घबराकर और कभी भरभराकर
बादलों से अनायास ही रिस पड़ती है.

प्रीति 'अज्ञात'

Friday, June 27, 2014

बुरबक !

'जीवन' एक सच
या 'मृत्यु' ही वास्तविकता ?
कितने स्वप्न देख लिया करता है 
ये पागल मन
एक ही जनम में
और फिर रोया करता है हरदम
बुक्का फाड़ के
झुंझलाता है, सर पीट-पीटकर
और बाकी वक़्त गुज़ार देता है
उनके पूरे न होने के मलाल में.

क्यूँ न मान ही लिया जाए
ये सर्वविदित कथन
'जो अपना है वो अपना ही रहेगा
और जो न हो सका, वो अपना था ही नहीं'
आँसू टपका-टपकाकर रोने से क्या फायदा
किसके पास है इतना फालतू वक़्त
कि आकर संभाले तुम्हें
और पोंछ डाले सारे आँसू
तुम नादां तो नहीं !
फिर काहे का तमाशा और
काहे की ज़िंदगी,
बुरबक !

चलो, बहुत हुआ
अब मुँह धो लो
मुस्कुराओ, यही बिकता है
दुनिया के बाज़ार में
खाँमखाँ ढूँढते हो मंज़िलें
एक पूर्व-निर्धारित लक्ष्य की
आह ! मृत्यु ही तो अंतिम पड़ाव है
हर जीवन का
तुम बुनते रहो
गुनते रहो
चाहे अनगिनत सपने
जल जाएँगे सब
भकभका के
एक साथ ही
हाँ, तुम्हारे ही इस
नश्वर शरीर के साथ !

- प्रीति 'अज्ञात'

Monday, June 16, 2014

एक टुकड़ा ज़िंदगी...

एक टुकड़ा ज़िंदगी
अपनों से ही
होती रही भ्रमित
खोती रही
जीवन के मायने.
बदलते चले गये
श्वासों के अर्थ
ग़लत हुआ हर गणित.
शब्दों के पीछे छुपा मर्म
कोसता रहा अपने होने को
कौन पढ़ पाया
अहसासों और हृदय के
उस एकाकी कोने को ?

सबने चुन लीं
अपने-अपने हिस्से
की खुशियाँ
मुट्ठी भर मुस्कानें
समेटीं दोनों हाथों से
भरी रिक्तता स्वयं की
संवार ली अपनी दुनिया.

दर्द, आँसू सर झुकाए
अब भी तिरस्कृत
शून्य के चारों तरफ
निराश, हताश भटकते.
बंज़र ज़मीन पर
चीत्कारें भरता मन
सुन रहा है अट्टहास
बदली हुई दृष्टियों का
भिक्षुक बना प्रेम
स्मृतियाँ बनीं सौत
एक टुकड़ा ज़िंदगी
पल-पल बरसती मौत !

प्रीति 'अज्ञात'

ठूंठ

यादों की टहनियों पर
नन्ही-सी कुछ कोंपलें
कैसे पनप उठीं थीं
ठंडी हवा की गोद में
सर रखे, पीती हुईं नमीं
पाया नव-जीवन
उस स्नेहिल स्पर्श से
जैसे थक गईं हों
उस भूरे चोले के अंदर
तभी तो खिलखिलाकर
खोल दीं सब खिड़कियाँ 
और झट-से सर निकाल
ताकने लगीं दुनिया.

कितना सुंदर था सब
वो पत्तों का हरा होना
पर्णहरित की संगत में
फूटे कितने अंकुर
निकलने लगीं उचककर
उम्मीदों की अनगिनत शाखाएँ
झूमी हर डाली
फूलों का खिलना अब तय जो था
पर ये किसका प्रकोप ?
कि बदला मौसम ने रुख़ 
बदल गई रंगत सारी
शुष्क हुईं शाखाएँ
मुरझा गईं वो कोंपलें
काँपने लगी हर डाली
कुम्हला गये सब पत्ते
न खिल सका इक भी पुष्प.

उष्णता ने सोख लिया सब कुछ
लील ली नर्मी सारी
हर उदास शाम को
तन्हा दिखाई देता है
बस एक बूढ़ा ठूंठ
बेशर्मी से अब भी ज़मीन में
गढ़ा हुआ
न जाने किसके
इंतज़ार में...!

प्रीति 'अज्ञात'

Sunday, June 15, 2014

'मैं' और 'तुम'

'मैं' और 'तुम'
'हम' न बन सके
घुलता ही रहा
ढलता चला गया
मेरा वजूद
'तुम' में
होती रही दूर
अपने-आप से
कि पा सकूँ खुद को
समझ ही न सकी
मेरे हर बढ़ते क़दम
तुम्हें और भी
पीछे ले जा रहे हैं
जहाँ से देख सकते हो 'तुम'
अनगिनत 'मैं'
पर मुझे अब भी दिखते हो
सिर्फ़ एक 'तुम'

ठिठककर चाहा मैंनें
क्यूँ न अब 'तुम' भी 
चलो थोड़ा, मेरी तरफ
बस यही ग़लती हुई मेरी
क्योंकि 'तुम' तो वहीं थे
बस देखा किए थे
मेरा बढ़ना
लेते गये परीक्षा
खींचते जा रहे थे
न जाने कितनी रेखाएँ
और मैं अबाध गति से
चली ही आ रही थी
बेझिझक, बेपरवाह-सी

सो, लेना ही पड़ा तुम्हें फ़ैसला
चैन से जीने का
देखो न, अब सब कुछ 
कितना सुंदर हो गया है
तुम्हारे जीवन में
कोई काली छाया
अब मंडराती ही नहीं
खुश हूँ, देखकर इस पुष्प के
आसपास उड़ने लगीं 
नये ख्वाबों की कुछ तितलियाँ 

और आज जहाँ 'मैं' हूँ
वहाँ से 'तुम' तो
कब के चले गये थे
'हम' होना यूँ भी 
मुमकिन न था
'तुम', 'तुम' ही रहे
और 'मैं' ख़त्म हो गई
तुम्हें पाने की ज़िद में
'तुममें' ही कहीं सिमटकर !

- प्रीति 'अज्ञात'

Saturday, June 14, 2014

वैचित्र्य

रोज ही उठती है, 
प्रात:कालीन वचन के साथ
कि नहीं करेगी प्रतीक्षा
न अपेक्षा, न उम्मीद
जीएगी एकाकी ही, पहले-सा
हाँ, आश्वस्त भी करती है
अपने ही पागलपन को

फिर गुज़रते हैं, कुछ पल
घंटों में बदलते हुए
घड़ी की सुइयों की तरह ही
चलता है, मन-मस्तिष्क
पर इन सब ज़िम्मेदारियों
कर्त्तव्य और निर्वाह के बीच
बैचैन हो भटक रहा कोई
अचानक रौंदने लगता है
सुबह की प्रतिज्ञा
थम जाता है सब कुछ
यूँ हाथ तो अब भी
यन्त्रवत ही चला करते हैं.

मुस्कुराते चेहरे के पीछे
होती है उथल-पुथल
स्वप्न-सा कुछ तैरने लगता है
घबराकर थाम ही लेती है
उन्हीं धुंधली होती स्मृतियों का एक सिरा
कि श्वासों की गति अवरुद्ध न हो
उन्हें जीवित करने की ऊहापोह में
दौड़ती हुई अचानक
समय और फोन पर जैसे
बिठा आती हो आँखें.

पर धीरे-धीरे बैठता है हृदय ही
कुछ चिंता, उदासी और चिड़चिड़ापन
झलकता है माथे की लकीरों से
चाँद का आसमान में होना
अब उसे भाता ही नहीं 
जब देखो, सितारों से घिरा रहता है
निराश है अपने ही जीवन के वैचित्र्य से
कि रोज ही डूबा करती है सूरज संग
अनमनी-सी, कोसते हुए स्वयं को
और उसके उदय होते ही
फिर क्यूँ खिल उठती है !!

प्रीति 'अज्ञात'

Thursday, June 12, 2014

इक और नदी....



एक जीवन अपने साथ बहुत कुछ बहा ले जाता है........

चुपचाप खड़ा हिमालय
सुन रहा आर्तनाद
गले लिपट बिलख रही 
टूटती उम्मीदों का
स्तब्ध है मौन
गूँज रहा सन्नाटा
छलनी हर हृदय.

अवाक आसमान, 
नि:शब्द हो सिसकता
सर झुकाए तलाश रहा
अपने ही प्रतिबिंब में 
डूबे हुए वो जीवन.
कुछ मन अब भी चीख रहे
अस्वीकृति में इस निर्मम सत्य की.
निर्जीव पाषाण से लिपटकर कहीं
इक लौ अब भी टिमटिमाती है.

पर ये नदी है कि
थमती ही नहीं 
बह रहे कितने निर्दोष सपने
धरती के गर्भ में
टूटा बाँध सब्र का
पीड़ा की परिधि के भीतर ही
उठेंगी सर्प-सी लहरें
सारी सीमाओं को लाँघकर
बढ़ता रहेगा व्यास
बहती रहेगी उम्र-भर
इक और नदी दर्द की !

- प्रीति 'अज्ञात'

Friday, June 6, 2014

प्रतिरोध

नहीं महसूस होता उसे कि
कहाँ ले जाया गया और कौन थे 
उस तन्हा सफ़र के साथी
कितनी उदासियाँ असली थीं
और कितने चेहरे आभासी
कितने आगंतुक परेशान थे
देरी की कथा सुनाकर
और कितने उठ गये बीच में ही
कार्य की व्यथा बताकर

नहीं समझ पाती वो आज भी, कि
उम्र भर बंधनों से बँधी रही जो
क्यूँ बाँधा गया है उसे और भी कसकर
क्यूँ न दिया अब तलक उसे किसी ने
उसका पसंदीदा वो लाल वाला फूल चुनकर
रंग भी देखो ओढ़ा दिया वही फीका-सा
जो कभी पहना था उसने सुबककर
ये कैसी विवशता है जाने ! कि
न सीखा तैरना, पर बह जाती है
घबराती थी लौ से जो, अब जल जाती है
सहमी गहरे अंधेरों से, गड्ढों में सहसा उतर जाती है

नही करती इस बार कोई भी सवाल-जवाब
और मौन हो स्वत: कूच कर जाती है
थक चुकी है वो इस जीवन-संघर्ष से
सो बँध गई पाषाण हो एक और बेड़ी समझ
पसंद-नापसंद पहले भी किसने पूछी उसकी ?
बह जाती हैं अपने ही आँसुओं की नदी में
जलती है भीतर के ज़िंदा सवालों की तरह
अंधेरा ज़रूर अपना-सा ही लगता होगा उसे
इसीलिए ही तो, हाँ इसीलिए ही 
'लाशें' कभी प्रतिरोध नहीं करतीं !

प्रीति 'अज्ञात'